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विक्रमार्कराजाका प्रबन्ध ३) एक वार, उस नगरका निवासी दां ता नामक सेठ, हाथमें सेंट लेकर आया और सभामें बैठे हुए विक्र मा दित्य को प्रणाम करके कहने लगा-' महाराज, मैंने शुभ मुहूर्तमें प्रधान बदइयोंसे एक धवलगृह ( महल ) बनवाया, और उसमें बड़े उत्सवके साथ प्रवेश किया। मै जब रातको उसमें पलँगपर पड़ा हुआ, आधा-सोया, आधा-जागा वाली अवस्थामें था उस समय ' गिरता हूँ' इस प्रकारकी मैंने आकस्मिक वाणी सुनी । मैं मारे डरके ' मत गिरो' यह कहता हुआ उसी समय वहाँसे भाग निकला । उस मकानके बनवानेके संबंधमें ज्योतिषियों और कारीगरोंको समय समय पर जो धन दान किया गया है वह मेरे ऊपर वृथा दण्ड ही हुआ ! अब इस विषयमें महाराज जो उचित समझें करें!' राजाने उस सेठकी बात भली भाँति सुनकर, उस धवलगृहका मूल्य जो तीन लाख उसने बताया, वह उसे चुकाकर, उसको स्वायत्त कर लिया । सायंकाल होनेपर, सर्वावसर' यानि राजसभामें बैठकर, तत्संबंधी सब कार्योंसे निवृत्त होकर, उस घरमें सुखपूर्वक जा सोया । उसी ' गिरता हूँ' इस वाणीको सुनकर वह असम साहसी राजा बोला कि ' जल्दी गिरो!' और उसके ऐसा कहते ही पास ही गिरे हुए सुवर्ण पुरुषको उसने प्राप्त किया।
-इस तरह यह सुवर्ण पुरुषकी सिद्धिका प्रबन्ध है ॥२॥ ४) एक दूसरे अवसरपर कोई अभागा पुरुष, अपने हाथसे बनाये हुए एक लोहेका दुबला पतला दरिद्र नामक पुतला लेकर द्वारपर आया। जब द्वारपाल उसे राजाके पास ले गया तो उसने कहा कि-'महाराज, आप जैसे स्वामीसे शासित इस अवन्ती पुरी में सभी चीजें जल्दी बिक जाती हैं और मिल जाती हैं, ऐसी प्रसिद्धि जानकर मैंने चौरासी चौहटोंपर विक्रयके लिये इस दरिद्र-पुतलेको घुमाया, लेकिन किसीने इसे नहीं खरीदा और उलटी मेरी भर्त्सना की गई। आपकी इस नगरीका यह कलंक यथार्थ रीतिसे आपको बताकर, क्या मैं जैसे आया था वैसे ही चला जाऊं ! यह आपसे पूछने आया हूँ।' उसकी इस घटनाको पुरीका एक महान् कलंक समझकर राजाने उसी समय उसे एक लाख दीनार देकर, लोहेके उस दरिद्र-पुतलेको खरीद लिया और अपने खजानेमें रखवा दिया। ऐसा करनेपर उसी रातको, सुख पूर्वक सोये हुए राजाके निकट, पहले पहरमें हाथियोंकी अधिष्ठात्री देवता, दूसरेमें घोड़ोंकी अधिष्ठात्री देवता और तीसरेमें लक्ष्मीने आविर्भूत होकर कहा कि' महाराजने जब दरिद्र-पुतलेको खरीद लिया है तो, फिर हमारा यहाँ रहना उचित नहीं है '- यह कह, अनुज्ञा लेकर वे चले जानेको पूछने आये, तो राजाने अपना साहस भंग न हो इसलिये उनको जानेकी अनुमति दे दी। चौथे पहरमें कोई दिव्य तेजःसम्पन्न उदार पुरुष प्रकट हुआ और बोला कि-' मैं सत्त्व (साहस) हूँ, जानेके लिये आपकी अनुज्ञा चाहता हूँ '। उसके ऐसा पूछनेपर राजा हाथमें तलवार लेकर जब आत्मघात करनेको उद्यत हुआ तो फिर उसने हाथ पकड़कर कहा कि-' मैं तुष्टमान हुआ' और राजाको उस कृत्यसे रोका । सत्त्वके वहीं रहनेपर हाथी आदिकी तीनों अधिष्ठात्री देवतायें लौटकर राजासे बोली-'जानेके संकेतको नष्ट करके सत्त्वने हमें धोखा दिया है । इसलिये राजाको छोड़कर हम लोगोंका जाना अब उचित नहीं है । इस प्रकार वे भी बिना किसी यत्नके ही स्थिर होकर रह गई। [१] तभीतक धन है, तभीतक गुण है, और तभीतक समुज्ज्वल कीर्ति है, जबतक हे सत्त्व
( साहस ) ! तुम चित्तरूपी नगरमें खेल रहे हो ।
१ सर्वावसर उस जगहका नाम है जहां राजा अपने मुख्य सिंहासन पर बैठकर सब कोई प्रजाजन और राजकीय पुरुषोंकी मुलाकात लेता देता है और राज्यके सब कार्योंका विचार करता है। दिवान-ए-आया दरबार-ए-आम यह उर्दु शब्द इसका
प्रायः समानार्थक हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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