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प्रकरण २१६-२१८] प्रकीर्णक प्रबन्ध
[१४५ तो अपनी शारीरिक ताकात कैसी है सो दिखा दूं'। पहरेदारोंने यह बात उस म्लेच्छराजको जा कर कहीं तो वह उसके साहसको देखनेकी इच्छासे, उसे उसकी राजधानीमें ले आया और राज-भवनमें ले जा कर उसको गादीपर बिठाया । बादमें ज्यों ही उन्होंने देखा तो उसके महलकी चित्रशालामें ऐसे चित्र बने हुए नजर आये जिनमें सूअर म्लेच्छोंको मार रहे हैं । यह दृश्य देख वह तुर्कोका राजा अपने मनमें अत्यन्त पीड़ित हुआ और वहीं पर उसने कुठार द्वारा पृथ्वी रा ज का सिर काट कर उसका संहार कर डाला ।
इस प्रकार नृपति परमर्दी, जगदेव और पृथ्वीराज इन तीनोंका यह प्रबंध समाप्त हुआ।
कौंकण देशकी उत्पत्ति कैसे हुई। २१७) जहाँ समुद्र ही जिसकी परिखा (खाई) है ऐसे श ता नन्द पुर में म हा नं द नामक राजा हुआ । उसकी रानीका नाम था म द न रे खा । अन्तःपुर [ में स्त्रियों ] की प्रचुरता होनेसे राजा उसके प्रति विरक्त रहता था। इसलिये पतिको वशीभूत करनेकी इच्छासे वह नानाविध विदेशी जनों और कलाविदोंसे इस बारे में पूछा करती । तब एक यथार्थवादी विश्वसनीय तांत्रिकने उसे कुछ सिद्धयोग बताया। उसके प्रयोग करनेके अवसरपर उसे इस वाक्यका अनुस्मरण हो आया कि ' मंत्रमूलके बलपर की हुई प्रीतिको पतिद्रोह कहते हैं । तो उस योगचूर्णको समुद्रमें फेंक दिया। कहा है कि ' मंत्र और औषधिका प्रभाव अचिन्त्य होता है'-इस लिये
औषधके माहात्म्यसे वशीभूत हुआ समुद्र ही उसका वशवर्ती हो कर, मूर्तरूप (मनुष्यस्वरूप ) बना कर उसके साथ रातमें आ कर रतिरमण करने लगा। इससे वह गर्भवती हो गई। तब उसके ऐसे चिन्होंको देख कर राज, कुपित हो कर उसे किसी प्रवास आदिका दण्ड देनेकी तदबीर सोचने लगा। इससे उसकी मृत्यु निकट समझ कर समुद्रदेव प्रत्यक्ष हुआ और अपना परिचय देते हुए बोला कि-' मैं समुद्रका अधिष्ठाता देव हूँ, इसलिये डरना मत '। फिर वह राजासे बोला - २६०. शीलवती कुलीन कन्याको, विवाह करके, जो सम-दृष्टिसे नहीं देखता, वह बड़ा भारी पापिष्ठ
कहा गया है। इसलिये इस स्त्रीकी अवज्ञा करनेवाले ऐसे तुझको मैं अन्तःपुर और परिवारके साथ अगाध जलमें डुबो दूंगा'। यह सुन कर वह भयभ्रान्ता रानी उसका अनुनय करने लगी। इस पर समुद्रने यह कह कर कि'यह मेरा ही लड़का होगा और इसलिये मैं ही कहीं कहींका जल हटा कर इसे साम्राज्यके योग्य नई भूमि दूंगा' - ऐसा कह कर फिर उसने कहीं कहींसे जल हटा कर अन्तरीप ( बेट ) बना दिये जो लोगोंमें सब 'कौं क ण' नामसे प्रसिद्ध हुए।
इस प्रकार यह कौंकण-प्रबंध समाप्त हुआ।
ज्योतिषी वराहमिहिरका प्रबन्ध । २१८) पाट ली पुत्र नगरमें वराह नामक एक ब्राह्मणका लड़का था जो जन्मसे ही शकुन ज्ञानमें श्रद्धालु था । गरीब होनेके कारण पशु चरा कर अपना निर्वाह किये करता था । एक दिन [ जंगलमें ] किसी एक पत्थर पर लग्न लिख कर उसे बिना मिटाये ही घर लौट आया । यथासमय उचित कृत्य कर लेनेके बाद रातमें भोजन करनेको बैठा तो उस लग्नके विसर्जन न करनेका स्मरण हो आया । तब उसी समय निर्भय
भावसे वहाँ गया तो देखा कि उसपर एक सिंह बैठा है। उसने इसकी भी परवा न की और उसके पेटके नीचे Jain Education Intastis) For Private & Personal Use Only
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