SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ ] प्रबन्धचिन्तामणि [पंचम प्रकाश २५४. हे जगदे व ! हम नहीं जानते कि किसका हाथ थक जायगा-दरिद्रोंको रचते रचते ब्रह्माका या उन्हें कृतार्थ करते करते तुम्हारा । २५५. हे ज ग देव! इस जगद्प देवमंदिरमें प्रतिष्ठित तुम्हारे यशरूपी शिवलिंगके ऊपर [आकाशके नक्षत्रोंने अक्षतका रूप धारण किया है। [ १७४ ] हे जग दे व ! चारों समुद्रोंमें डुबकी मारनेके कारण तुम्हारी कीर्ति मानों ठंडीसे जकड गई है, इसलिये अब ताप लेनेके निमित्त वह सूर्य-मण्डलको चली है। [१७५ ] क्षत्रियदेव श्री ज गद्दे व भूपालका कल्याण हो ! जिसके यशरूपी कमलमें आकाशने भ्रमरका रूप धारण किया। [ १७६ ] पृथ्वीमण्डलपर सुवर्ण वितरण करनेवाला तो एकमात्र ज ग दे व ही है और उसके मांगनेवालोंकी संख्या हजारोंकी है-ऐसा सोच कर, ऐ मेरे मन विषाद मत करो । सूर्य कितने हैं और प्रबल अन्धकारराशिमें डूबते हुए जन-समूहकी प्राणरक्षाके लिये यात्रामें प्रवृत्त उनके घोड़ोंके खुरसे खुदा हुआ यह दिङ्मण्डल कितना विस्तृत है ! जग देव की दी हुई ' न नवम् ' ( नया नहीं है ) इस समस्याकी पूर्ति एक पंडितने इस प्रकार की२५६. समुद्र अगाध है, पृथ्वीमण्डल विशाल है, आकाश विभु है, मेरु पर्वत ऊँचा है, विष्णु प्रथित महिमा है, कल्पवृक्ष उदार है, गंगा पवित्र है, चंद्रमा अमृतवर्षी है और जगद्देव वीर है-ये सब (विशेषण-युक्त विशेष्य ) नये नहीं हैं। [ १७७ ] तुझ समान जगद्दाता जग हे व के विद्यमान होनेपर, अब लोक साहसांक राजाके चरितके आश्चर्योंमें भी मन्दादर हो गये हैं तो फिर पार्थकी उस सच्ची कथाका कहना तो वृथा ही है। यह पृथ्वीमें बलि है, यह भूचर शक है। कृष्णको किसीने देखा नहीं, पृथ्वीमंडल कल्पवृक्षसे शून्य है। कामदेवका शोच न करना चाहिए। (- इस पद्यका भाव कुछ स्पष्ट नहीं ज्ञात होता.) [ १७८ ] हे ज ग द्दे व ! तुम्हारा यशोरूप दुर्वार चंद्रमा जब निरंतर ही अपनी किरणश्रेणीको दसों दिशाओंमें विकीर्ण करने लगा, तब सारे भुवनको राकाके लिये भयका स्थान समझ कर, 'कुहू' शब्द है सो एक मात्र कोकिलके कंठका शरणभूत हो कर रहा । ( 'कुहू' का एक अर्थ अमावस्याकी रात्रि है, और दूसरा कोकिलका शब्द है । जगद्देवके यशरूपी चंद्रमाका निरंतर प्रकाश बना रहनेसे अमावस्याका अभाव हो गया, इसलिये कुहू शब्दका व्यवहार केवल, कोकिलके शब्दमें रह गया ।) [१७९] हे प्रभु जग दे व ! तुम्हारे रूपमें मुग्ध हो कर, वातायन पर स्थित सुभ्रू ( सुंदर भ्रुवों वाली ) रमणियोंकी कमलदलसे द्रोह करनेवाली नाचती हुई आँखें सभय, सालस, सगर्व, साई, तिरछी, चकित, भ्रान्त और आर्त की नाई, कहां नहीं पड़ती हैं । इस प्रकारके बहुतसे काव्य हैं जो यथाश्रुत जानने चाहिये । राजा श्री परमर्दी राज की पट्टदेवीको ज ग दे व ने अपनी भगिनी माना था। एक बार, राजाने सीमान्त भूपालको हरानेके लिए श्री ज ग द्दे व को भेजा । वह, वहाँ जब देवार्चन कर रहा था उसी समय छल करके आघात करनेवाले शत्रुने उसकी सेनामें उपद्रव मचाया। इसका हाल सुन कर भी वह जग द्दे व उस देवपूजासे बाहर नहीं निकला । प्रणिधि पुरुषों के मुँहसे राजाने ज गद्दे व का पराजय हुआ सुना तो यह अश्रुतपूर्व बात सुन कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy