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________________ २१०-२१३ ] प्रकीर्णक प्रबन्ध [ १४१ मनमें व्याकुल हो कर उस सूह व देवी के पुत्रको अपने हाथीपर बैठा कर ( उसके साथ ) राजा गंगाके जल में डूब मरा । इस प्रकार यह जयचन्द्रका प्रबंध समाप्त हुआ । * जगदेव क्षत्रियका प्रबंध । २१३) त्रिविध वीरश्रेष्ठत्वको धारण करनेवाला जगदेव नामक एक क्षत्रिय वीर हुआ । वह श्री सिद्धराज के द्वारा खूब सम्मानित होता था । फिर भी उसके गुणरूप मंत्रके वशीभूत हो कर शत्रुमर्दन ऐसे राजा परमर्दीने जब उसे आग्रहपूर्वक अपने यहां बुलाया, तो पृथ्वीरूप रमणीके केशकलापके समान उस कुन्तल देश में वह गया । दरवाजेपर पहुँच कर जब उसने राजाको अपने आने की खबर भिजवाई उस समय [ राजाके आगे ] एक वेश्या, नंगी हो कर 'पुष्प चलन ' नृत्य कर रही थी । वह तत्काल ही लज्जित हो कर अपनी चादर ओढ कर वहीं बैठ गई । जब राजाके द्वारपालने जग देव को प्रवेश कराया तो राजाने उठकर आलिंगन दिया और प्रिय आलाप आदि किया । इस सम्मान के बाद, फिर उसे प्रधान परिधानदुकूल और लाखोंकी कीमत के अतुलनीय ऐसे दो अन्य वस्त्र भेंट स्वरूप दिये । बादमें जग द्देव के महामूल्यवान आसन पर बैठ जानेपर सभाका संभ्रम जब दूर हुआ, तो राजाने उस वेश्याको नाचनेका आदेश किया । तब उस उचितज्ञा चतुर नारीने कहा कि-' संसारके एकमात्र पुरुष श्री जगदेव नामक अब यहांपर विद्यमान हैं इसलिये इनके सामने बिना वस्त्रके नाचते मैं लजाती हूं । स्त्रियां स्त्रियों के सामने ही यथेष्ट चेष्टा कर सकती हैं '। उसकी इस लोकोत्तर प्रशंसासे मनमें प्रमुदित हो कर जग द्देव ने राजाके दिये हुए उन दोनों वस्त्रों को उसे दे डाला । इसके बाद, जब प र मर्दों के प्रासादसे जग देव को किसी एक देशका आधिपत्य मिला तो उसे सुनकर उसका ऋणग्रस्त उपाध्याय उससे मिलने आया । उसने यह काव्य भेंट किया २५०. हम दो आदमीके पुण्यको मानते हैं - एक तो अक्षत्रिय विधिसे वालिको मारनेवाले किसी भगवान् (रामचंद्र ) के, और दूसरे संगीतमें आसक्त कुन्तल पति के । इनमें से एक ( रामचंद्र ) ने तो मरुत्तनय ( हनुमान् ) की दोनों सुंदर भुजाओं रूप कामधेनुका दोहन किया और दूसरे (कुन्तलपति ) ने, हे प्रतिपक्ष ( शत्रु ) के लिये प्रत्यक्ष परशुराम, आप जैसे चिन्तामणिको प्राप्त किया । इस काव्य के पारितोषिक में उस स्थूललक्ष ( लक्षण सम्पन्न ) ने आधा लाख दिया । २५१. चकवेने पांथ ( मुसाफिर ) से पूछा कि ' हे मित्र ! बताओ पृथ्वी में बसने लायक वह कौनसा देश है जहाँपर चिर कालतक रात्रि नहीं होती ? ' ( इसपर पांथने कहा कि ) ' श्री जगदेव नामक पुरुष जो सुवर्णदान कर रहा है उससे थोडे ही दिनों में और फिर सूर्यका छिपना बंद हो कर एक मात्र अद्वैत ऐसा (विना २५२. पृथ्वीकी रक्षा करनेमें दक्ष ऐसे दाहिना हाथत्राले, दाक्षिण्यकी मेरु पर्वत समाप्त हो जायगा । रात्रिका ) दिन ही बना रहेगा । शिक्षा देने में गुरुके समान, कल्याणके स्थान और धन्यजन्म ऐसे जगद्दाता जग द्देव के विद्यमान होनेपर, विद्वानोंके घर भी ऐसे बन गये हैं कि जिनमें प्रतिदिन, मतवाले हाथी और घोड़ोंके बांधने योग्य वृक्षों की रस्सियां टूट जाने के कारण, नौकर लोग व्याकुल बने रहते हैं 1 २५३. तुम्हारे जीवित रहते बलि, कर्ण और दधीचि जीते हैं और हमारे जीवित रहते दारिद्र्य जीता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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