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प्रबन्धचिन्तामणि
[ चतुर्थ प्रकाश
२३३. श्री वस्तुपाल के अन्न-दान, जल-पान,
और धर्मस्थानोंसे तो पृथ्वीतल, और यशसे सारा आकाश-मंडल ढंक गया है । इसलिये स्थानाभाव के कारण नहीं बैठ रहा हूं ।
उसकी इस वाणी के निमित्त उचित पारितोषिक दे कर, उससे बिदा मांग कर, मंत्रीने रास्तेमें प्रस्थान किया। आं के वाली या ग्रामकी एक गंवारु झोंपडी में दाभकी चटाई पर बैठा हुआ, गुरुद्वारा आराधना करता हुआ आहारका त्याग करके, अन्तिम आराधनासे कलिमलका ध्वंस किया और अन्तमें युगादिदेवका ही जाप करता हुआ
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२३४. सज्जनोंके स्मरण करने लायक ऐसा कुछ भी सुकृत नहीं किया । केवल मनोरथ ही करते हुए हमारी यह आयु चली गई ।
इस वाक्यके अन्तमें ' नमोऽर्हद्भ्यः नमोऽर्हद्द्भ्यः ' ( अर्हतों को नमस्कार ) इन अक्षरोंके उच्चारणके साथ ही सप्तधातुबद्ध इस शरीरका त्याग करके, स्वकृत उत्तम पुण्यफलको भोगने के लिये, उसने स्वर्ग लोकको अलंकृत किया। उसके संस्कार स्थान पर छोटे भाई तेजपाल और पुत्र जैत्र सिंह ने श्री युगादि देवकी दीक्षावस्थाकी मूर्ति से अलंकृत स्वर्गारोहण प्रासाद बनवाया ।
२३५. आज, मेरे पिताकी आशा फलवती हुई, माताके आशीर्वादका अंकुर उगा, जो मैं इस प्रकार अखिन्नभावसे युगादि देवकी यात्रा करनेवाले लोगोंको [ अपनी शक्ति-भक्तिसे] संतुष्ट कर रहा हूँ । २३६. जिन लोगोंने राजाकी सेवाके पापसे कुछ भी पुण्यार्जन नहीं किया उन्हें हम धूलिधावक ( धूलके ढोहनेवाले) लोगों से भी अधमतर समझते हैं ।
ये तथा अन्य काव्य स्वयं वस्तु पाल महाकविके रचित हैं ।
२३७. स्वामिके गुणोंसे पूर्ण वह वीरधवल एक निस्सीम प्रभु हुआ, विद्वानों द्वारा भोजराजका बिरुद प्राप्त करने वाला वस्तुपाल एक अद्वितीय कवि हुआ, प्रधानवर्ग में वह तेजपाल अद्वितीय मंत्रीवर हुआ और गुणोंसे अनुपम ऐसी अनुपमा उसकी स्त्री एक साक्षात् लक्ष्मी हुई ।
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इस प्रकार श्री मेरुतुंगाचार्यविरचित प्रबंधचिन्तामणिमें श्री कुमारपाल भूपाल प्रमुख - मंत्रीश्वर वस्तुपाल और तेजःपालतकके महापुरुषोंके यशका वर्णन करनेवाला यह चौथा प्रकाश समाप्त हुआ ।
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