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________________ प्रकरण १३८-१३९ ] कुमारपालादि प्रबन्ध १८०. हम लोग भिक्षा माँग कर तो भोजन करते हैं, जूने-पुराने वस्त्र पहनते हैं और अकेली जमीन ___ पर सो रहते हैं, तब फिर हम लोगोंको राजाओंसे क्या करना है । उनके ऐसा कहने पर राजाने कहा१८१. मित्र एक ही [ होना चाहिये ], राजा या यति; भार्या एक ही [ होनी चाहिये ] सुन्दरी रमणी या दरी ( कंदरा ); शास्त्र एक ही [ होना चाहिये ], वेद या अध्यात्म; और देवता भी एक ही [ होना चाहिये ] केशव या जिन । महाकविके इस कथनके अनुसार मैं परलोककी साधनाके लिये आपकी मित्रता चाहता हूं। ' किसी बातका निषेध न करना उसे स्वीकार कर लेना है ' - इस उक्तिके कथनानुसार, सूरिके कुछ न कहने पर उस महर्षिकी चित्तवृत्तिको पहचान लेने वाले उस राजाने, लोगोंके आने जानेमें बाधा देने वाले द्वारपालोंको, श्रीमुखसे आज्ञा दी कि इन महर्षिको किसी भी समय आनेमें बाधा न दी जाय । हेमाचार्यके समागमसे कुमारपालके पुरोहितका विद्वेष । १३९) बादमें सूरिको वहाँ आते जाते देख और राजाको उनके गुणका गान करते देख, विरोध भावसे पुरोहित आलि ग ने कहा१८२. विश्वामित्र, पराशर आदि तथा अन्य ऋषिगण, जो केवल जल और पत्ता खा कर रहते थे, वे भी स्त्रीके सुंदर मुखकमलको देख कर मोहित हो गये, तो फिर जो मनुष्य घी, दूध और दहीका आहार करते रहते हैं उनका इन्द्रियनिग्रह कैसा हो सकता है ! अहो, यह इनका दम्भ तो देखिये। उसके ऐसा कहने पर हे म चंद्र ने कहा१८३. हाथी और सूअरका मांस खाने वाला ऐसा जो बलवान् सिंह है वह, सुना जाता है कि वर्षमें केवल एक ही वक्त रति करता है; पर कर्कश शिलाकणको खाने वाला कबूतर रोज रोज कामी बना रहता है ! इसमें क्या कारण है, सो तो बताओ?' उसका मुंह बंद कर देने वाले इस प्रत्युत्तरके बाद ही किसी [ और ] मत्सरीने कहा, कि ये श्वेतांबर तो सूर्यको भी नहीं मानते । उसके ऐसा कहने पर - १८४. लोकको धारण करने वाले सूर्यको [ वास्तवमें ] हमी लोग हृदयमें धारण करते हैं। क्यों कि उसको अस्तगमन रूप संकट उपस्थित होने पर [ हम तो] अन्न-जल भी छोड़ देते हैं। इस प्रमाणकी निपुणताके आधार पर, हमीं लोग वस्तुतः सूर्यभक्त हैं, ये नहीं [ यह सिद्ध कर दिया ] । इससे उसका मुँह बन्द हो गया। फिर एक बार देवतावसर ( देवपूजाकी समाप्ति ) हो जाने पर, मोहान्धकारको नष्ट करनेमें चंद्रमाके समान श्री हे म चंद्र के आने पर य श चंद्र ग णि ने रजोहरणके द्वारा आसन पट्टको साफ कर वहाँ कम्बल बिछाया, तो राजाने [ उसका ] तत्त्व न समझते हुए पूछा कि 'क्या बात है ?' उन्होंने कहा - 'कदाचित् यहाँ कोई जन्तु हो, इस लिये उसको हटा देनेके लिये यह प्रयत्न होता है ।' राजाने इस पर यह युक्ति-युक्त बात कही कि- ' यदि प्रत्यक्ष कोई जन्तु देखा जाय तो ऐसा करना उचित है; न कि यों ही वृथा प्रयास करना ठीक होता है । ' इस पर उन सूरिने कहा- 'आप क्या [ अपनी ] हाथी घोड़ेकी सेनाको शत्रु राजाके चढ़ आने पर ही तैय्यार करते हैं, या पहले भी ! ' जैसे वह राजव्यवहार है वैसे ही यह धर्म व्यवहार है। उनके इस प्रकारके गुणोंसे हृदयमें रंजितं हो कर राजा, अपनी पहले की हुई प्रतिज्ञाके For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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