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________________ ९०] प्रबन्धचिन्तामणि [ तृतीय प्रकाश महान् राज्यका कारण भी प्राक्तन कर्म को बता कर [ कर्म ही की] प्रशंसा की । राजाने इस वृत्तान्तको सुन कर कर्मकी प्रशंसाको विफल करनेके विचारसे, प्रशंसा करनेवाले चाकरको एक दिन, उसे कुछ भी रहस्य न जता कर, यह प्रसाद-लेख दे कर महामंत्री सान्तू के पास भेजा कि-' इस चाकरको एक सौ घोड़ेका सामंत बना दिया जाय'। वह चाकर इस लेखको ले कर जब चंद्रशालाकी सीढ़ियोंसे नीचे उतर रहा था, तब पैर फिसल जानेसे गिर गया और उसका अंग भंग हो गया । उसीके पीछे चले आने वाले दूसरे चाकरने पूछा कि- यह क्या बात है ?' तो उसने अपनी बात बताई । वह तो फिर खाटमें बैठ कर अपने घर गया और उस दूसरे [ अपने साथी ] को यह राजाका लेख दे कर मंत्रीके पास जानेको कहा। मंत्रीने उस लेखमें की गई आज्ञानुसार उस चाकरको सौ घुडसवारों वाला सामंतपद प्रदान किया । यह सब बात सुन कर राजाने भी कर्मको ही बलवान माना। १७०. न तो आकृति, न कुल, न शील, न विद्या और न मनुष्योंकी की हुई सेवा कुछ फल देती है। पूर्व जन्ममें तपस्यासे संचित किये हुए पुण्य कर्म ही मनुष्यको समय पा कर वृक्षोंकी तरह फल देते हैं। इस तरह यह वण्ठकर्म प्राधान्य-प्रबंध समाप्त हुआ। सिद्धराजकी स्तुतिके कुछ फुटकर पद्य । १७१. तीन भुवनके बीच में यह जे स ल ( ज य सिंह-सिद्ध राज ) राजा [ एक बडा ] कूट बरुड * है जिसने अनेक राजवंशोंका छेदन कर [ अपना ] एक छत्र [ राज्य ] बनाया है । इसकी जय हो। १७२. महालय, महा-यात्रा महास्थान और महासरोवर, जैसे सिद्ध रा ज ने किये वैसे किसीने नहीं किये। १७३. जिगीषु जन ( एक अर्थ - गानेकी इच्छा रखने वाले; दूसरा अर्थ-विजयकी इच्छा रखने वाले ) एक मात्राका भी अधिक होना सह नहीं सकते, मानों इसी लिये हे धरानाथ ( पृथ्वीनाथ )! तुमने धारानाथ (धा रा न गरी के नाथ) को नष्ट किया है । [ क्यों कि 'धरानाथ' की अपेक्षा 'धारा-नाथ ' में एक मात्रा अधिक है] १७४. हे सरस्वती, मान छोड़ दो; हे गंगा, तुम भी अपने सोहागकी भंगीको छोड़ो; अरी यमुने, अब तेरी कुटिलता वृथा है; रे रेवा, तूं वेगको छोड़ दे; क्यों कि अब समुद्र, श्री सिद्ध रा ज के कृपाणसे कटे हुए शत्रुस्कंधों से उछलने वाली रक्तकी धारासे बनी हुई नदीरूपी नवीन स्त्रीसे रक्त (१ लाल वर्ण, २ अनुरक्तप्रेमी) हो गया है। १७५. हे विजयी राजाओंमें सिंह ( जयसिंह ) महाराज, सचमुच ही तुम्हारे जय-यात्राके समय, हाथियोंके कारण जलाशयोंके सूख जानेकी चिंतासे; वीरोंके घावकी आकांक्षासे; तथा, अपने पतियोंके विनाशकी आशंकासे; क्रमशः मछली रोती है, मक्खी हँसती है, और स्त्रियाँ अशुभका ध्यान करती हैं। * बरुड या बरड उस जातिका नाम है जो वाँसको चीर-छोल कर उससे टोकरी, करंडक और छाता आदि बनाये करते हैं। कहीं कहीं ' गंछ' भी इनको कहा हैं । इस पद्यमे, राजवंश और छत्र ये शब्द श्लेषात्मक हैं। इस पद्यमें सिद्धराजके ४ महाकार्य बतलाये गये हैं - जिनमें महालयसे तो सिद्धपुरके रुद्रमहालयका सूचन होता है। महायात्रासे बहुत करके सोमेश्वर तीर्थकी की हुई बड़ी यात्राका सूचन होता है। किसीके खयालसे सिद्धराजने जो मालवे पर विजय प्राप्त किया था उस विजययात्राका इसमें सूचन किया गया है। महासरोवरसे पाटनके सहस्रलिंग सरोवरका निर्देश किया गया है। ४ ये महास्थानसे किस वस्तुका सूचन होता है यह ठीक ज्ञात नहीं होता । कहते हैं कि सिद्धराजने कई बड़े बड़े कि ये और कई बड़े स्थान भी बसाये थे। संभव है उन्हींमेंसे किसीका कोई सूचन इसमें किया गया हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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