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________________ ८८] प्रबन्धचिन्तामाणि [तृतीय प्रकाश मनुष्यको साथ ले कर, अकस्मात् उस देवीके मंदिरमें प्रादुर्भूत हुआ। उसने देवीकी रत्न, सुवर्ण और कर्पूरसे पूजा अर्चा की और उस राजाकी रानियोंको उसी प्रकारके उत्तम पानके बीड़े दिये । फिर श्री सिद्ध राज का नामांकित वह सिद्धवेष पूजाके बहाने वहीं रख कर, उसी बर्बरके कंधेपर चढ़कर, उडता हुआसा जैसे आया था वैसे ही चला गया। रातके अन्तमें रानियोंने उस विरोधी राजाको वह वृत्तान्त कह सुनाया तो, भयभ्रान्त हो कर उसने, उस उपहारको, अपने प्रधान पुरुषोंके द्वारा सिद्ध रा ज के पास पहुँचा दिया। इधर उस सेवकने अपने मालके क्रय-विक्रयका संकोच करके शीघ्रगामी पुरुषके साथ यह खबर भिजवा दी कि-'जब तक मैं न आऊँ तब तक इन प्रधान पुरुषोंको दर्शन न दीजियेगा।' फिर स्वयं जल्दी जल्दी चल कर कुछ ही दिनोंमें वहाँ पहुँच गया। उसके अपने कियेका पूरा वर्णन करने पर, राजाने उन प्रधानोंका यथोचित स्वागतादि किया। इस प्रकार यह कोल्हापुर प्रबंध समाप्त हुआ। कौतुकी सीलणकी वाक्चातुरी । १२० ) श्री सिद्ध राज, मा ल व मंडल से यशोवर्मा राजाको जब बाँध लाया, तब उसके निमित्त किये जाने वाले उत्सव पर सील ण नामक कौतुकीने कहा कि- ' अहो बेडा (नाव ) में समुद्र डूब गया।' तब उसके पीछे स्थित किसी गायन ( गान करनेवाले ) ने ' तुम अपशब्द कह रहे हो'- ऐसा कह कर उसकी तर्जना की । तब उसने अर्थापत्तिसे इस प्रकार विरोधालङ्कारका परिहार करके बताया कि-' बेडाके समान इस गूर्जर भूमि में समुद्र जैसा यह मा ल व - न रे श डूब गया।' [इस पर उसने ] राजासे सोनेकी जीभ प्राप्त की। इस प्रकार यह कौतुकी सीलणका प्रबंध समाप्त हुआ। काशीपति जयचन्द्रकी सभामें सिद्धराजके इतकी वाक्पटुता १२१) किसी समय, सिद्ध राज के एक वाचाल सान्धिविग्रहिक (दूत ) से काशी के राजा ज य चंद्र ने अण हि ल्ल पुर के प्रासाद, प्रपा ( बावडी ) और निपान ( कूए ) आदिका स्वरूप पूछते समय [ उसकी विशेष शोभा सुन कर, ईर्ष्यावश राजाने ] यह दोष बताया कि- ' स ह स लिं ग सरोवर का जल शिव-निर्माल्य होनेके कारण अस्पृश्य है । उसका सेवन करने वाले दोनों लोकसे विरुद्ध व्यवहार करते हैं। अतः वहाँके लोग, उदित प्रभाव वाले कैसे हों ? सिद्ध रा ज ने सहस्र लिंग सरोवर बना कर यह अनुचित कार्य किया है।' राजाकी इस बातसे मन-ही-मन कुपित हो कर उसने राजासे पूछा कि-[आपकी ] 'इस वा राणसी में कहाँका जल पिया जाता है ?' राजाके 'गंगाजल' ऐसा कहने पर उसने कहा-'क्या गंगाजल शिव निर्माल्य नहीं है तो और क्या है ? शिवका सिर ही तो गंगाकी निवास-भूमि है।' इस प्रकार जयचंद्र राजाके साथ गूर्जरके प्रधानकी उक्तिप्रत्युक्तिका प्रबंध समाप्त हुआ। मयणल्लादेवीके पिताकी मृत्युवार्ता । १२२) किसी समय, कर्णा ट देश से आये हुए सान्धिविग्रहिकसे मय ण ल्ला देवी ने अपने पिता जय के शी का कुशल समाचार पूछा तो उसने अश्रुपूर्ण आँखोंसे कहा कि- स्वामिनि, प्रख्यातनामा महाराज श्री जय के शी भोजनके समय पिंजरेसे तोतेको बुला रहे थे। उसके मार्जार' (बिल्ली) बैठी है, ऐसा कहने पर, राजाने चारों ओर देख कर-किंतु अपने भोजनके पात्रके [ चौकीके ] नीचे छिपे हुए मार्जारको न देख कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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