________________
* ७६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
समाचारी : एक विश्लेषण
छब्बीसवें अध्ययन में समाचारी का निरूपण है। समाचारी जैन-संस्कृति का पारिभाषिक शब्द है। शिष्टजनों के द्वारा किया गया क्रिया-कलाप समाचारी है।२४४ उत्तराध्ययन में ही नहीं, भगवती,२४५ स्थानांग२४६ आदि अन्य आगमों में भी समाचारी का वर्णन मिलता है। आवश्यकनियुक्ति में भी समाचारी पर चिन्तन किया गया है। दृष्टिवाद के नौवें पूर्व की आचार नामक तृतीय वस्तु के बीसवें ओघ प्राभृत में समाचारी के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार के साथ निरूपण था। पर वह वर्णन सभी श्रमणों के लिए सम्भव नहीं था। जो महान् मेधावी सन्त होते थे, उनका अध्ययन करते थे। अतः आगम-मर्मज्ञ आचार्यों ने सभी सन्तों के लाभार्थ ओघनिर्यक्ति आदि ग्रन्थों का निर्माण किया। प्रवचनसारोद्धार, धर्मसंग्रह आदि उत्तरवर्ती ग्रन्थों में भी समाचारी का निरूपण है। उपाध्याय यशोविजय जी ने समाचारी-प्रकरण नामक स्वतंत्र ग्रन्थ की रचना की है।
श्रमणाचार के वृत्तात्मक आचार और व्यवहारात्मक आचार ये दो भेद हैं। महाव्रत वृत्तात्मक आचार है और व्यवहारात्मक आचार समाचारी है। समाचारी के ओघ समाचारी और पद-विभाग समाचारी ये दो भेद हैं। प्रथम समाचारी का अन्तर्भाव धर्मकथानयोग में और दूसरी समाचारी का अन्तर्भाव चरणकरणानुयोग में किया गया है। आवश्यकनियुक्ति में समाचारी के ओघसमाचारी, दशविध-समाचारी और पद-विभाग-समाचारी ये तीन प्रकार बतलाए हैं। ओघ-समाचारी का प्रतिपादन ओघनियुक्ति में किया गया है और पद-विभाग-समाचारी छेदसूत्र में वर्णित है।
दिगम्बर ग्रन्थों में समाचारी के स्थान पर 'समाचार' और 'सामाचार' ये दो शब्द आये हैं। आचार्य वट्टेकर ने उसके चार अर्थ किये हैं-(१) समता का आचार, (२) सम्यक् आचार, (३) सम आचार, तथा (४) समान आचार।२९७
श्रमण-जीवन में दिन-रात में जितनी भी प्रवृत्तियाँ होती हैं, वे सभी समाचारी के अन्तर्गत हैं। समाचारी संघीय जीवन जीने की श्रेष्ठतम कला है। समाचारी से परस्पर एकता की भावना विकसित होती है, जिससे संघ को बल प्राप्त होता है।
प्रस्तुत अध्ययन में दशविध ओघ-समाचारी का निरूपण हुआ है। इस सम्बन्ध में हमने विस्तार के साथ “जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप" ग्रन्थ में निरूपण किया है।२४८ विशेष जिज्ञासु वहाँ देख सकते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org