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* ७४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
कौन है?' इस सम्बन्ध में अपना चिन्तन प्रस्तुत किया। जिस यज्ञ में जीवों की विराधना होती है उस यज्ञ का भगवान ने निषेध किया है। जिसमें तप और संयम का अनुष्ठान होता है वह भाव यज्ञ है।
ब्राह्मण शब्द की, जो जातिवाचक बन चुका था, यथार्थ व्याख्या प्रस्तुत अध्ययन में की गई है। जातिवाद पर करारी चोट है। मानव जन्म से श्रेष्ठ नहीं, कर्म से श्रेष्ठ बनता है। जन्म से ब्राह्मण नहीं, कर्म से ब्राह्मण होता है। मुण्डित होने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता। ओंकार का जाप करने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता। अरण्य में रहने मात्र से मुनि नहीं होता। दर्भ, वल्कल आदि धारण करने मात्र से कोई तापस नहीं हो जाता। समभाव से श्रमण होता है। ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि एवं तपस्या से तापस होता है।
जिस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में ब्राह्मण की परिभाषा की गई है, उसी प्रकार की परिभाषा धम्मपद में भी प्राप्त होती है। उदाहरण के रूप में प्रस्तुत अध्ययन की कुछ गाथाओं के साथ धम्मपद की गाथाओं की तुलना करें
"तसपाणे वियाणेत्ता, संगहेण य थावरे।
जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बूम माहणं॥" -उत्तराध्ययन २५/२२ तुलना कीजिए
"निधाय दंडं भूतेसु, तसेसु थावरेसु च। यो हन्ति न घातेति, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥" -धम्मपद २६/२३ "कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया।
मुसं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं॥" -उत्तराध्ययन २५/२३ तुलना कीजिये
“अकक्कसं विज्ञापनि, गिरं सचं उदीरये। याय नाभिसजे कंचि, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥" -धम्मपद २६/२६ "जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पई वारिणा। एवं अलित्तो कामेहिं, तं वयं ब्रूम माहणं॥" -उत्तराध्ययन २५/२६
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