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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ६७ *
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अत्तना व कतं पापं, अत्तजं अत्तसम्भवं । अभिमन्थति दुम्मेधं, वजिरं वस्ममयं मणिं॥ अत्तना व कतं पापं, अत्तना संकिलिस्सति। अत्तना अकतं पापं, अत्तना व विसुज्झति॥” –धम्मपद १२/४-५, ९ “न तं अरी कण्ठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणे॥"
-उत्तराध्ययन २०/४८ तुलना कीजिए
"दिसो दिसं यं तं कयिरा, वेरी वा पनं वैरिनं। मिच्छापणिहितं चित्तं, पापियो नं ततो करे॥" -धम्मपद ३/१० "दुविहं खदेऊण य पुण्णपावं, निरंगणे सव्वओ विष्पमुक्के। तरित्ता समुदं व महाभवोघं, समुद्दपाले अपुणागमं गए॥"
-उत्तराध्ययन २०/४
तुलना कीजिए
“यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्ण, कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्। तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय, निरञ्जनं परमं साम्यमुपैति॥"
-मुण्डकोपनिषद् ३/१/३ इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में चिन्तन की विपुल सामग्री है। इसमें यह भी प्रदर्शित किया गया है कि द्रव्यलिंग को धारण करने मात्र से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। यह भाव गाथा इकतालीस से पचास तक में प्रदर्शित किये गये हैं। उनकी तुलना सुत्तनिपात-महावग्ग पवज्जा सुत्त से सहज रूप से की जा सकती है। समुद्र-यात्रा _इक्कीसवें अध्ययन में समुद्रपाल का वर्णन है। इसलिए वह 'समुद्रपालीय' नाम से विश्रुत है। इस अध्ययन में समुद्र-यात्रा का महत्त्वपूर्ण उल्लेख है। उस युग में भारत के साहसी व्यापारी व्यापार हेतु दूर-दूर तक जाते थे। अतीतकाल से ही नौकाओं के द्वारा व्यापार करने की परम्परा भारत में थी। ऋग्वेद में इस प्रकार की नौकाओं का वर्णन है, जो समुद्र में चलती थीं। नाविकों के द्वारा समुद्र में बहुत दूर जाने पर मार्ग विस्मृत हो जाने पर वे पूषा की संस्तुति करते थे जिससे सुरक्षित लौट सकें।
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