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________________ *६४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन मृगगाँव नगर का था। उसकी रानी का नाम मृगा था।८८ वह दीक्षित हुआ हो, ऐसा भी उल्लेख नहीं मिलता। इसलिए निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। विज्ञों के लिए अन्वेषणीय है। ___ महाबल राजा का भी नाम इस अध्ययन में आया है। टीकाकार नेमिचन्द्र ने महाबल की कथा विस्तार से उठेंकित की है।८९ और उसका मूल स्रोत उन्होंने भगवती बताया है।९° महाबल हस्तिनापुर के राजा बल के पुत्र थे। उनकी माता का नाम प्रभावती था। वे तीर्थंकर विमलनाथ की परम्परा के आचार्य धर्मघोष के पास दीक्षित हुए थे। बारह वर्ष श्रमण-पर्याय में रहकर वे ब्रह्मदेवलोक में उत्पन्न हुए। वहाँ से वाणिज्यग्राम में श्रेष्ठी के पुत्र सुदर्शन बने। इन्होंने भगवान महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। यह कथा देने के पश्चात् नेमिचन्द्र ने लिखा है-महाबल यही है अथवा अन्य, यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते। हमारी दृष्टि से ये महाबल अन्य होने चाहिए। यह अधिक सम्भव है कि विपाकसूत्र में आये हुए महापुर नगर का अधिपति बल का पुत्र महाबल हो।'९१ __ इस प्रकार अठारहवें अध्ययन में तीर्थंकर और चक्रवर्ती राजाओं का निरूपण हुआ है, जो ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक काल में हुए हैं और जिन्होंने साधना-पथ को स्वीकार किया था। इनके साथ ही दशार्ण, कलिंग, पांचाल, विदेह, गांधार, सौवीर, काशी आदि जनपदों का भी उल्लेख हुआ है। साथ ही भगवान महावीर के युग में प्रचलित क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद, अज्ञानवाद आदि वादों का भी उल्लेख हुआ है। अठारहवें अध्ययन में इस तरह प्रचुर सामग्री रही हुई है। उन्नीसवें अध्ययन में मृगा रानी के पुत्र का वर्णन होने से अध्ययन का नाम 'मृगापुत्र' रखा गया है। एक बार महारानियों के साथ आनन्द-क्रीड़ा करते हुए मृगापुत्र नगर की सौन्दर्य-सुषमा निहार रहे थे। उनकी दृष्टि राजमार्ग पर चलते हुए एक तेजस्वी मुनि पर गिरी। वे टकटकी लगाकर मंत्रमुग्ध से उन्हें देखते रहे। मृगापुत्र को सहज स्मृति हो आई–'मैं भी पूर्व-जन्म में ऐसा ही साधु था।' उन्हें भोग बन्धनरूप प्रतीत हुए। संसार में रहना उन्हें अब असह्य हो गया। माता-पिता ने श्रामण्य-जीवन की कठोरता समझाई-"वत्स ! श्रामण्य-जीवन का मार्ग फूलों का नहीं काँटों का है। नंगे पैरों, जलती हुई आग पर चलने के सदृश है। साधु होना लोहे के जव चबाना है, दहकती ज्वालाओं को पीना है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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