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* ३८ मूलसूत्र : एक परिशीलन
आठवें अध्ययन में कहा गया है - जो साधु लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र और अंगविद्या का प्रयोग करता है, वह साधु नहीं है। यही बात तथागत बुद्ध ने भी सुत्तनिपात में कही है। उदाहरण के लिए
"जे लक्खणं च सुविणंच, अंगविज्जं च जे पउंजन्ति ।
न हु ते समणा वुच्चन्ति, एवं आयरिएहिं अक्खायं ॥” -उत्तराध्ययन ८/१३ तुलना कीजिए
"आथब्वणं सुपिनं लक्खणं, नो विदहे अथो पि नक्खत्तं । विरुतं च गब्भकरणं, तिकिच्छं मामको न सेबेय्य ॥"
- सुत्तनिपात, व ८, १४/१३
नवमें अध्ययन में नमि राजर्षि संयम - साधना के पथ को स्वीकार करते हैं। उनकी परीक्षा के लिए इन्द्र ब्राह्मण के रूप को धारण कर आता है। उनके वैराग्य की परीक्षा करना चाहता है । पर नमि राजर्षि अध्यात्म के अन्तस्तल को स्पर्श किये हुए महान् साधक थे । उन्होंने कहा - "कामभोग त्याज्य हैं, वे तीक्ष्ण शल्य हैं, भयंकर विष के सदृश हैं, आशीविष सर्प के समान हैं। जो इन काम - भोगों की इच्छा करता है, उनका सेवन करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।” इन्द्र ने उन्हें प्रेरणा दी -- “ अनेक राजागण आपके अधीन नहीं हैं, प्रथम उन्हें अधीन करके बाद में प्रव्रज्या ग्रहण करना।" राजर्षि ने कहा- "एक मानव रण-क्षेत्र में लाखों वीर योद्धाओं पर विजय वैजयन्ती फहराता है, दूसरा आत्मा को जीतता है। जो अपनी आत्मा को जीतता है, वह उस व्यक्ति की अपेक्षा महान् है ।”
प्रस्तुत संवाद में इन्द्र ब्राह्मण परम्परा का प्रतिनिधि है तो नमि राजर्षि श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि हैं । इन्द्र ने गृहस्थाश्रम का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए उसे घोर आश्रम कहा । क्योंकि वैदिक परम्परा का आघोष था - चार आश्रमों में गृहस्थाश्रम मुख्य है। गृहस्थ ही यजन करता है, तप तपता है । जैसे- नदी और नद समुद्र में आकर स्थित होते हैं, वैसे ही सभी आश्रमी गृहस्थ पर आश्रित हैं । १२२
नवमें अध्ययन के नमि राजर्षि की जो कथावस्तु है, उस कथावस्तु की आंशिक तुलना महाजनजातक, सोनकजातक, माण्डव्य मुनि और जनक, जनक और भीष्म के कथानकों से की जा सकती है। हमने विस्तारभय से उन
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