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________________ * ३५४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन स्कन्दिली (माथुरी) वाचना के विषय में कतिपय विज्ञों का कहना है कि दुष्काल के इस क्रूर चपेट में आर्य स्कन्दिल के सिवाय सभी अनुयोगधर कालधर्म को प्राप्त हो गये थे, केवल आर्य स्कन्दिल ही बचे थे, जिन्होंने मथुरा में दुष्काल-समाप्ति के बाद अनुयोग प्रवर्तन किया था। अतः यह वाचना स्कन्दिली वाचना के नाम से प्रसिद्ध हुई।२१५ ___ कहते हैं-दुष्काल समाप्त होने पर मथुरा में आयोजित श्रमणों के महासम्मेलन की अध्यक्षता आचार्य स्कन्दिल ने की थी। प्रस्तुत सम्मेलन में स्कन्दिल आचार्य के गुरुभाई, आचार्य मधुमित्र, महाप्राज्ञ आचार्य गन्धहस्ती (मधुमित्र के विद्वान् शिष्य) तथा तत्सम अनेक विद्वान् आदि लगभग १५० श्रमण उपस्थित थे। इन विद्वान् श्रमणों द्वारा स्मृत पाठों के आधार पर आगमों का संकलन हुआ। आर्य स्कन्दिल की प्रेरणा से विद्वान् शिष्य गन्धहस्ती ने ११ अंगसूत्रों पर विवरण लिखा। आचार्य स्कन्दिल का गुण-गौरव आचार्य स्कन्दिल के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए वाचक देवगणी लिखते हैं-“जिनका वर्तमान में उपलब्ध यह अनुयोग आज भी दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में प्रचलित है तथा बहुत से नगरों में जिनकी यशःकीर्ति फैल चुकी है, उन स्कन्दिलाचार्य को वन्दन करता हूँ।" वास्तव में स्कन्दिलाचार्य ने संकटकाल में भी अनुयोग की रक्षा की। आज इस अर्द्ध-भरत क्षेत्र में जो अनुयोग प्रचलित है, वह उनके ही पुरुषार्थ का मधुर फल है। नन्दीसूत्र के इस उल्लेख के अनुसार आचार्य स्कन्दिल के उदात्त व्यक्तित्त्व का प्रभाव पूरे भारत में प्रतीत होता है। आचार्य देवर्द्धिगणी ने आचार्य स्कन्दिल की वाचना को ही प्रमुख माना था। यह तथ्य भी उपर्युक्त गाथा से प्रमाणित होता है।२१६ आचार्य स्कन्दिल का कालनिर्णय ___ आचार्य मेरुतुंग के अनुसार-आचार्य स्कन्दिल की कालनिर्णयता इस प्रकार है-विक्रम सं. ११४ में श्री वज्र स्वामी का स्वर्गवास हुआ। आचार्य स्कन्दिल का समय आर्य वज्र के स्वर्गारोहण के २३९ वर्ष बाद का है। विद्वान् मुनि कल्याणविजय जी के अनुसार-वज्र स्वामी और आर्य स्कन्दिल दोनों का मध्यवर्ती समय २४२ वर्ष है। वज्र स्वामी के बाद १३ वर्ष आर्यरक्षित के, २० वर्ष पुष्यमित्र के, ३ वर्ष वज्रसेन के, ६९ वर्ष नागहस्ती के, ५९ वर्ष रेवतीमित्र के, ७८ वर्ष ब्रह्मदीपकसिंह के हैं। कुल जोड़ है-२४२ । इस २४२ की संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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