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________________ * ३४२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन मैं यक्षयोनि में पैदा हुआ हूँ। अतः मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि तुम भूलकर भी जिह्वालोलुप मत बनना। चारित्र का सम्यक् पालन करना।' सभी शिष्य यक्ष के द्वारा प्रतिबुद्ध हुए। उन्होंने कहा-“हम संयम-साधना में शिथिल नहीं होंगे। उत्कृष्ट संयम-साधना कर जीवन को पावन बनाएँगे।" इस प्रकार मंगू आचार्य यक्षयोनि पाकर पश्चात्तापपूर्वक पाप-प्रक्षालन करके आत्म-शुद्धि की दिशा में आगे बढ़ने लगे। आर्य धर्म एवं आर्य भद्रगुप्त : सत्रहवें-अठारहवें पट्टधर ___ आर्य धर्म मूर्तिमान् धर्म थे। ये आर्य सुधर्मा से लेकर आर्य धर्म सत्रहवें पट्ट पर आसीन हुए थे। आर्य धर्म के सम्बन्ध में विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता। इनके उत्तराधिकारी अठारहवें पट्ट पर आर्य भद्रगुप्त हुए। __ आचार्य भद्रगुप्त दशपूर्वधर थे। वे ज्योतिष विद्या के प्रकाण्ड पण्डित थे। आचार्य वज्र स्वामी दशपूर्वो का विवेचन ज्ञान प्राप्त किया। आचार्य भद्रगुप्त का जन्म वीर निर्वाण सं. ४२८ में हुआ था। वीर निर्वाण सं. ४४९ में इक्कीस वर्ष की आयु में इन्होंने आर्हती दीक्षा ग्रहण की तथा वीर निर्वाण सं. ४९४ में वे युगप्रधान आचार्य के पद पर आसीन हुए। और ३९ वर्ष तक जिनशासन-सेवा करने के बाद वीर निर्वाण सं. ५३३ में आपका स्वर्गवास हुआ। ___ यहाँ यह स्मरण रखना है कि आचार्य भद्रगुप्त का काल आचार्य वज्र स्वामी से कुछ पहले का है। कालक्रम की दृष्टि से आचार्य समुद्र और आचार्य मंगू का काल द्वितीय कालकाचार्य से पहले का है; जबकि आचार्य भद्रगुप्त का काल द्वितीय कालकाचार्य के पश्चात् का है। व्रतों में वज्रवत् सुदृढ़ आर्य वज्र स्वामी : उन्नीसवें पट्टधर आचार्य वज्र स्वामी का जीवन अनेक विलक्षणताओं से सम्पन्न था। वे बाल्यकाल से ही श्रुतपारगामी एवं उत्कृष्ट चारित्र-सम्पन्न तथा संसार की मोहमाया से विरक्त थे। अवन्ती देश के अन्तर्गत तुम्बवन नगर में आर्य वज्र का जन्म हुआ था। उनकी माता का नाम सुनन्दा था, पिता का नाम था-धनगिरि। सांसारिक विषयों के प्रति जलकमलवत निर्लिप्त धनगिरि ने अनिच्छा से धनपाल श्रेष्ठी की पुत्री सुनन्दा से विवाह किया। पत्नी के गर्भवती होने के बाद धनगिरि ने उसकी सहमति लेकर युवावस्था में ही गृह त्यागकर आचार्य सिंहगिरि के समीप दीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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