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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३४१ *
आर्य मंगू आर्य समुद्र के शिष्य एवं उत्तराधिकारी थे। वीर निर्वाण सं. ४५४ में वे वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए। आप ज्ञानी, ध्यानी और सम्यक् दर्शन के प्रबल प्रचारक थे। आप अपने शिष्यों को कुशलतापूर्वक सूत्र और अर्थ की वाचना देते थे। जीवन के ऊषाकाल और मध्याह्नकाल में आप बहुत ही जागरूक साधक थे। इसीलिए आचार्य देववाचक ने आचार्य मंगू को वन्दन करते हुए लिखा है-- “आचार्य मंगू आगम-अध्येता, आचार-कुशल, सूत्र और अर्थ का मानसिक चिन्तन करने वाले, परवादी-विजेता, प्रवचन-प्रभावक, ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुण-सम्पन्न श्रुत-समुद्र पारगामी एवं धृतिधर आचार्य थे।"
जीवन के सन्ध्याकाल में आचार्य मंगू अपनी साधना में शिथिल हो गए थे। निशीथ भाष्य और चूर्णि में उनके जीवन का एक प्रसंग है-एक बार आचार्य मंगू अपने शिष्यों के साथ मथुरा पधारे। वैराग्य से छलछलाते हुए प्रवचनों को सुनकर मथुरा-निवासियों के हृदय में धार्मिक भावनाएँ उबुद्ध हुईं। वे श्रद्धा-भक्तिवश उन्हें वस्त्र, पात्र तथा स्निग्ध, सरस, स्वादिष्ट आहार आदि प्रतिदिन प्रतिलाभित करने लगे। प्रतिदिन सरस, स्वादिष्ट आहार प्राप्त होने से रसलोलुपतावश आचार्य मंगू ने वहीं स्थिरवास रहने का विचार कर लिया। जो आचार्य एक दिन उग्र क्रियावादी थे, वे प्रमादी हो गए। सदोष आहार आसक्तिपूर्वक सेवन करने की उन्होंने आलोचना नहीं की। इस प्रकार प्रमादभाव में अनाराधक बनकर आयु पूर्ण करके वे यक्षयोनि में उत्पन्न हुए। ज्ञान के द्वारा उन्होंने अपना पूर्वभव जाना और सोचने लगे-'अहो ! मैंने जिह्वालोलुपतावश यह दुर्गति-दुर्योनि प्राप्त की है। जिनधर्म प्राप्त करके भी मैं साधना से भ्रष्ट हो गया।' चतुर्दशपूर्व का ज्ञाता भी यदि प्रमाद के अधीर हो जाए तो अनन्तकाल में उत्पन्न होता है। इस प्रकार वे 'हाय ! मैंने कितना पाप कर लिया"-यों पापों के लिए पश्चात्ताप करने लगे।१८६ ___ एक दिन यक्ष (मंगू के जीव) ने अपने शिष्यों को देखा और सोचा कि मेरी तरह इन शिष्यों की भी दुर्गति न हो जाए। अतः इन्हें प्रतिबुद्ध कर देना चाहिए। शिष्यों को प्रतिबद्ध करने हेतु वह (यक्ष) अपनी जीभ बाहर निकालकर लपलपाने लगा। उसके इस विचित्र रूप को देखकर शिष्य मन ही मन सोचने लगे - 'यह ऐसा विचित्र रूप बनाकर हमें कुछ कहना चाहता है। अतएव उन्होंने कहा- "देवानप्रिय ! आप अपने असली स्वरूप को प्रकट करके स्पष्ट करें कि आप हमें क्या कहना गहते हैं ?' यक्ष ने कहा- 'हे तपस्वियो ! पूर्वभव में मैं तुम्हारा गुरु मंगू था।८७ जिह्वालोलुपतावश होने से मेरी यह दुर्गति हुई है कि
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