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* ३२६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन (४) आचार्य शय्यंभव तक चतुर्विध श्रमणसंघ में एक ही आचार्य परम्परा
थी। परन्तु आचार्य यशोभद्र ने अपने पाट पर संभूतविजय और भद्रबाहु दोनों को आचार्यपद पर नियुक्त करके जैनशासन (धर्मसंघ) में नई प्रवृत्ति को जन्म दिया। ४६ मगध, अंग और विदेह ये तीनों प्रदेश आचार्य यशोभद्र के धर्म-प्रचार
के क्षेत्र रहे। उस समय मगध पर नन्दवंश का राज्य था। (६) आचार्य शय्यंभव और आचार्य यशोभद्र दोनों ब्राह्मण परिवार से सम्बद्ध
होने से तत्कालीन ब्राह्मण समाज पर उनका असाधारण प्रभाव पड़ा। इन दोनों आचार्यों का ७३ वर्ष का सुदीर्घकाल वैदिक संस्कृति (जिसमें ब्राह्मण परम्परा) को जैन संस्कृति से प्रभावित करने वाला अहिंसा का
उद्घोष काल रहा। माठर गोत्रीय आचार्य सम्भूतविजय : षष्ठ पट्टधर
आचार्य सम्भूतविजय श्वेताम्बर जैन परम्परा के महान् गौरवशाली आचार्य थे। महावीर शासन के वे छठे पट्टधर तथा श्रुतकेवली परम्परा में चतुर्थ श्रुतकेवली थे। उनका जन्म वीर निर्वाण सं. ६६ (विक्रम पूर्व ४०४) में माठर गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उत्कृष्ट विरक्तभाव से उन्होंने वीर निर्वाण १०८ (विक्रम पूर्व ३६२) में ४२ वर्ष की आयु में आर्य यशोभद्र के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की। आगमों का गम्भीर ज्ञानार्जन करते हुए १४ पूर्वो का सम्पूर्ण मूलार्थ ग्रहण कर वे श्रुतकेवली आचार्य बने। आचार्य यशोभद्र के पश्चात् वीर निर्वाण सं. १४८ (विक्रम पूर्व ३२२) में वे आचार्यपद पर आरूढ़ हुए। श्रुतसम्पन्न आचार्य भद्रबाहु उनके गुरुभ्राता श्रमण थे। ___ कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार आचार्य सम्भूतविजय के १२ प्रमुख शिष्य थे-(१) नन्दनभद्र, (२) उपनन्दनभद्र, (३) तिष्यभद्र, (४) यशोभद्र, (५) स्थविर सुमनभद्र, (६) मणिभद्र, (७) पुण्यभद्र, (८) स्थूलभद्र, (९) ऋजुमति, (१०) जम्बू, (११) दीर्घभद्र, और (१२) पाण्डुभद्र।
आचार्य सम्भूतविजय के संघ में कतिपय घोर अभिग्रहधारी श्रेष्ठ श्रमण थे। ऐसे स्थूलभद्र आदि ४ विशिष्ट साधकों के अभिग्रह का रोमांचकारी वर्णन उपदेशमाला में किया गया है। उसके अनुसार एक ने सिंह गुफा में, दूसरे ने सर्प की बाम्बी पर, तीसरे ने कुएँ की पाल पर और चौथे आर्य स्थूलभद्र ने अपनी पूर्व परिचिता कोशा गणिका की कामोत्तेजक चित्रशाला में चातुर्मास
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