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* २८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
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९. चर्या
१०. निषद्या ११. शय्या
१२. आक्रोश १३. वध
१४. याचना १५. अलाभ
१६. रोग १७. तृणस्पर्श
१८. जल्ल १९. सत्कार-पुरस्कार
२०. ज्ञान २१. दर्शन
२२. प्रज्ञा उत्तराध्ययन में उन्नीस परीषहों के नाम व क्रम वही हैं, किन्तु २०, २१ व २२ के नाम में अन्तर है। उत्तराध्ययन में (२०) प्रज्ञा, (२१) अज्ञान, और (२२) दर्शन है।
नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव७३ ने 'अज्ञान' परीषह का क्वचित् श्रुति के रूप में वर्णन किया है। आचार्य उमास्वाति७४ ने 'अचेल' परीषह के स्थान पर 'नाग्न्य' परीषह लिखा है और 'दर्शन' परीषह के स्थान पर 'अदर्शन' परीषह लिखा है। आचार्य नेमिचन्द्र७५ ने 'दर्शन' परीषह के स्थान पर 'सम्यक्त्व' परीषह माना है। दर्शन और सम्यक्त्व इन दोनों में केवल शब्द का अन्तर है, भाव का नहीं।
परीषहों की उत्पत्ति का कारण ज्ञानावरणीय, अन्तराय, मोहनीय और वेदनीय कर्म हैं। ज्ञानावरणीय कर्म प्रज्ञा और अज्ञान परीषहों का, अन्तराय कर्म अलाभ परीषह का, दर्शनमोहनीय अदर्शन परीषह का और चारित्रमोहनीय अचेल, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार, इन सात परीषहों का कारण है। वेदनीय कर्म क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और जल्ल, इन ग्यारह परीषहों का कारण है।७६ ___ अधिकारी-भेद की दृष्टि से जिसमें सम्पराय अर्थात् लोभ-कषाय की मात्रा कम हो, उस दसवें सूक्ष्म सम्पराय७७ में तथा ग्यारहवें उपशान्तमोह और बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में (१) क्षुधा, (२) पिपासा, (३) शीत, (४) उष्ण, (५) दंश-मशक, (६) चर्या, (७) प्रज्ञा, (८) अज्ञान, (९) अलाभ, (१०) शय्या, (११) वध, (१२) रोग, (१३) तृणस्पर्श, और (१४) जल्ल, ये चौदह परीषह ही सम्भव हैं। शेष मोहजन्य आठ परीषह वहाँ मोहोदय का
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