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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * ३१५ * में उनका पंचम स्थान था, जबकि आचार्यों की श्रृंखला में वे प्रथम आचार्य बने; तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण के समय इन्द्रभूति गौतम और सुधर्मा दो ही गणधर अवशिष्ट थे। शेष नौ गणधरों का निर्वाण भगवान महावीर के निर्वाण के पूर्व ही हो गया था। अतः अग्निभूति आदि नौ गणधर आर्य सुधर्मा को अपना अपना गण सौंपकर भगवान महावीर की विद्यमानता में ही सिद्धबुद्ध-मुक्त हो गये थे।२३ ज्येष्ठ गणधर इन्द्रभूति गौतम सर्वज्ञ हो गये थे। सामान्य सर्वज्ञ कभी संघ परम्परा का वाहक नहीं होता। अतः वीर निर्वाण के बाद संघ के दायित्व को गणधर सुधर्मा ने सँभाला। उस समय उनकी वय ८० वर्ष की थी। वीर निर्वाण के समय गणधर सुधर्मा का गण ही सर्वाधिक विशाल था। उनके पास अपने गण के अतिरिक्त नौ गणधरों की शिष्य सम्पदा प्राप्त थी। ११ गणधरों में सुधर्मा स्वामी के ही शिष्य हुए हैं, शेष १० गणधरों की शिष्य परम्परा नहीं चली।२४
तीर्थंकर महावीर के सुखद उपपात में ३० वर्ष रहने के कारण विविध अनुभवों की विपुल निधि उनके पास थी। भगवान महावीर-जैसे संघ के सबल आधार के चले जाने से चतुर्विध श्रमणसंघ की नैया का डगमगा जाना स्वाभाविक था। परन्तु आर्य सुधर्मा का मजबूत आश्रय संघ के लिए अतीत उपयोगी सिद्ध हुआ।२५
उस समय आजीवक आदि अन्य धर्मसंघ भी अपना वर्चस्व बढ़ा रहे थे। ऐसे समय में सुधर्मा ने जो नेतृत्व श्रमणसंघ को दिया, वह अत्यन्त सुदृढ़ व उपयोगी आलम्बन था। __ जैनशासन आज आचार्य सुधर्मा का अत्यन्त आभारी है। उन्होंने वीतराग प्रभु महावीर के चरणों में बैठकर उनकी लोककल्याणकारिणी त्रिविधतापहारिणी अमृतवाणी से अपनी मस्तिष्क-घट को भरकर पिछली पीढ़ी के लिए अगाध आगम ज्ञान राशि को सुरक्षित रखा। वर्तमान में ग्यारह अंगशास्त्रों की ज्ञान सम्पदा आर्य सुधर्मा की देन है।२६ सर्वज्ञश्री से मण्डित होने के बाद आपके अविकल ज्ञान से हजारों व्यक्तियों को दिव्य प्रकाश प्राप्त हुआ। इस सम्बन्ध में विशेष ज्ञातव्य (१) दिगम्बर परम्परा के अनुसार गणधर इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर
के प्रथम उत्तराधिकारी थे। (२) दिगम्बर परम्परा के कतिपय ग्रन्थों में 'सुधर्मा' का अपर नाम 'लोहार्य'
भी उपलब्ध होता है।१२७
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