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२१० मूलसूत्र : एक परिशीलन
अध्यात्म अन्तर्मुख है तो विज्ञान बहिर्मुख है । अध्यात्म अन्तरंग जीवन को सजाता है, सँवारता है तो विज्ञान बहिरंग जीवन को विकसित करता है। बहिरंग जीवन में किसी भी प्रकार की विशृंखलता नहीं आये, द्वन्द्व समुत्पन्न न हों, इसलिए अन्तरंग दृष्टि की आवश्यकता है एवं अन्तरंग जीवन को समाधियुक्त बनाने के लिए बहिरंग का सहयोग भी अपेक्षित है। बिना बहिरंग सहयोग के अन्तरंग जीवन विकसित नहीं हो सकता । मूलतः अध्यात्म और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं । उनमें किसी प्रकार का विरोध और द्वन्द्व नहीं है । वे एक-दूसरे के पूरक हैं, जीवन की अखण्डता के लिए दोनों की अनिवार्य आवश्यकता है।
अध्यात्म का प्रतिनिधि आगम
जैन आगम आध्यात्मिक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले चिन्तन का अद्भुत व अनूठा संग्रह है, संकलन है । आगम शब्द बहुत ही पवित्र और व्यापक अर्थगरिमा को अपने आप में समेटे हुए है। स्थूल दृष्टि से भले ही आगम और ग्रन्थ पर्यायवाची शब्द रहे हों पर दोनों में गहरा अन्तर है | आगम 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की साक्षात् अनुभूति की अभिव्यक्ति है । वह अनन्त सत्य के द्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग तीर्थंकरों की विमल वाणी का संकलन - आकलन है। जबकि ग्रन्थों व पुस्तकों के लिए यह निश्चित नियम नहीं है । वह राग-द्वेष के दलदल में फँसे हुए विषय कषाय की आग में झुलसते हुए, विकार और वासनाओं से संत्रस्त व्यक्ति के विचारों का संग्रह भी हो सकता है। उसमें कमनीय कल्पना की ऊँची उड़ान भी हो सकती है पर वह केवल वाणी का विलास है, शब्दों का आडम्बर है, किन्तु उसमें अन्तरंग की गहराई नहीं है ।
जैन आगम में सत्य का साक्षात् दर्शन है जो अखण्ड है, सम्पूर्ण व समग्र मानव-चेतना को संस्पर्श करता है । सत्य के साथ शिव का मधुर सम्बन्ध होने से वह सुन्दर ही नहीं, अतिसुन्दर है । वह आर्ष वाणी तीर्थंकर या ऋषियों की वाणी है । यास्क ने ऋषि की परिभाषा करते हुए लिखा है - "जो सत्य का साक्षात् द्रष्टा है, वह ऋषि है ।" १ प्रत्येक साधक ऋषि नहीं बन सकता, ऋषि वह है जिसने तीक्ष्ण प्रज्ञा, तर्कशुद्ध ज्ञान से सत्य की स्पष्ट अनुभूति की है । यही कारण है कि वेदों में ऋषि को मंत्रद्रष्टा कहा है। मंत्रद्रष्टा का अर्थ है - साक्षात् सत्यानुभूति पर आधृत शिवत्व का प्रतिपादन करने वाला सर्वथा मौलिक ज्ञान । वह आत्मा पर आई हुई विभाव परिणतियों के कालुष्य को दूर कर केवलज्ञान और केवलदर्शन
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