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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १६५
आदि को प्रमुख आवेग माना है। जैनदर्शन की दृष्टि से कामभावना सहकारी कषाय है या उप-आवेग है, जो कषाय की अपेक्षा कम तीव्र है। जिन मनोभावों के कारण कषाय उत्पन्न होते हैं, वे नोकषाय हैं । इन्हें उप-कषाय भी कहते हैं । ये भी व्यक्ति के जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं। नोकषाय व्यक्ति के आन्तरिक गुणों को उतना प्रत्यक्षतः प्रभावित नहीं करते जितना शारीरिक और मानसिक स्थिति को करते हैं। जबकि कषाय शारीरिक और मानसिक स्थिति को प्रभावित करने के साथ ही सम्यक् दृष्टिकोण को, आत्म-नियंत्रण आदि को प्रभावित करते हैं, जिससे साधक न तो सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है और न आचार को । रति का अर्थ है अभीष्ट पदार्थों पर प्रीतिभाव या इन्द्रियविषयों में चित्त की अभिरतता । रति के कारण ही आसक्ति और लोभ की भावनाएँ प्रबल होती हैं । २०६
असंयम में सहज आकर्षण होता है पर त्याग और संयम में सहज आकर्षण नहीं होता । इन्द्रिय-वासनाओं की परितृप्ति में जो सुखानुभूति प्रतीत होती है वह सुखानुभूति इन्द्रिय-विषयों के विरोध में नहीं होती । इसका मूल कारण हैचारित्रमोहनीय कर्म की प्रबलता । जब मोह के परमाणु सक्रिय होते हैं तब भोग में आनन्द की अनुभूति होती है । जिस व्यक्ति को सर्प का जहर चढ़ता है, उसे नीम के पत्ते भी मधुर लगते हैं। जिनमें मोह के जहर की प्रबलता है, उन्हें भोग प्रिय लगते हैं। जिनमें चारित्रमोह की अल्पता है, जो निर्मोही हैं, उन्हें भोग प्रिय नहीं लगते और न वे सुखकर ही प्रतीत होते हैं । भोग में सुख आदि की अनुभूति का आधार चारित्रमोहनीय कर्म है।
मोह एक भयंकर रोग के सदृश है, जो एक बार के उपचार से नहीं मिटता । उसके लिए सतत उपचार और सावधानी की आवश्यकता है। जरा-सी असावधानी रोग को उभार देती है। मोह का उभार न हो और साधक मोह से विचलित न हो, इस दृष्टि से प्रस्तुत चूलिका अध्ययन का निर्माण हुआ है। आचार्य हरिभद्र ने लिखा है कि इस चूलिका में जो अठारह स्थान प्रतिपादित हैं, वे उसी प्रकार हैं, जैसे घोड़े के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश, नौका के लिए पताका है । इस अध्ययन के वाक्य साधक के अन्तर्मानस में संयम के प्रति रति समुत्पन्न करते हैं, जिसके कारण इस अध्ययन का नाम 'रतिवाक्या' रखा गया है | २०७
इस अध्ययन में साधक को साधना में स्थिर करने हेतु अठारह सूत्र दिए हैं। सूत्र साधक को साधना में स्थिर कर सकते हैं। गृहस्थाश्रम में विविध प्रकार
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