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________________ * १४४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन दिया गया है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की सावधानी बहुत आवश्यक है। जरा-सी असावधानी से साधक साधना से च्युत हो सकता है। ब्रह्मचर्य-पालन का जहाँ अत्यधिक महत्त्व बताया गया है वहाँ उसकी सुरक्षा के लिए कठोर नियमों का भी विधान है। ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है। ... अपरिग्रह पाँचवाँ महाव्रत है। श्रमण बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के परिग्रह से मुक्त होता है। परिग्रह चाहे अल्प हो या अधिक हो, सचित्त हो या अचित्त हो, वह सभी का त्याग करता है। वह मन, वचन और काया से न परिग्रह रखता है और रखवाता है और न रखने वाले का अनुमोदन करता है। परिग्रह की वृत्ति आन्तरिक लोभ की प्रतीक है। इसीलिए मूर्छा या आसक्ति को परिग्रह कहा है। श्रमण को जीवन की आवश्यकता की दृष्टि से कुछ धर्मोपकरण रखने पड़ते हैं, जैसे-वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण आदि।०३ श्रमण वे ही वस्तुएँ अपने पास में रखे जिनके द्वारा संयम-साधना में सहायता मिले। श्रमणों को उन उपकरणों पर ममत्व नहीं रखना चाहिए, क्योंकि ममत्व साधना की प्रगति के लिए बाधक है। आचारांग०४ के अनुसार जो पूर्ण स्वस्थ श्रमण है, वह एक वस्त्र से अधिक न रखे। श्रमणियों के लिए चार वस्त्र रखने का विधान है पर श्रमण के वस्त्रों के नाप के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है किन्तु श्रमणियों के लिए जो चार वस्त्र का उल्लेख है उनमें एक दो हाथ का, दो तीन हाथ के और एक चार हाथ का होना चाहिए। प्रश्नव्याकरणसूत्र में श्रमणों के लिए चौदह प्रकार के उपकरणों का विधान है-(१) पात्र-जोकि लकड़ी, मिट्टी अथवा तुम्बी का हो सकता है, (२) पात्रबन्ध-पात्रों को बाँधने का कपड़ा, (३) पात्रस्थापना-पात्र रखने का कपड़ा, (४) पात्रकेसरिका-पात्र पोंछने का कपड़ा, (५) पटल-पात्र ढकने का कपड़ा, (६) रजस्त्राण, (७) गोच्छक, (८) से (१०) प्रच्छादक-ओढ़ने की चादर, श्रमण विभिन्न नापों की तीन चादरें रख सकता है इसलिए ये तीन उपकरण माने गये हैं, (११) रजोहरण, (१२) मुखवस्त्रिका, (१३) मात्रक, और (१४) चोलपट्ट।०५ ये चौदह प्रकार की वस्तुएँ श्रमणों के लिए आवश्यक मानी गई हैं। बृहत्कल्पभाष्य'०६ आदि में अन्य वस्तुएँ रखने का भी विधान मिलता है, पर विस्तारभय से हम यहाँ उन सबकी चर्चा नहीं कर रहे हैं। अहिंसा और संयम की वृद्धि के लिए ये उपकरण हैं, न कि सुख-सुविधा के लिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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