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पञ्चास्तिकायः । त्रिभुवनमूर्ध्वाधोमध्यलोकवर्ती समस्त एव जीवलोकस्तस्मै निक्वाधविशुद्धयोत्मतत्त्वोपलम्भोपायाभिधायित्वाद्वितं । परमार्थरसिकजनमनोहारित्वान्मधुरम् । निरस्तसमस्तशंकादिइन्द्रशतवन्दितेभ्यः । पुनरपि कथंभूतेभ्यः । तिहुवणहिदमहुरविसदवकाणं त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः । पुनरपि किंविशिष्टेभ्यः । अंतातीदगुणाणं अन्तातीतगुणेभ्यः । पुनरपि । जिदभवाणं जितभवेभ्यः, इति क्रियाकारकसंबन्धः । इन्द्रशतवन्दितेभ्यः त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः अन्तातीतगुणेभ्यो नमो जिनेभ्यो जितभवेभ्यः। “पदयोर्विवक्षितः सुविनसमासान्तरयो” रिति परिभाषासूत्रबलेन विवक्षितस्य संधिर्भवतीति वचनात्प्राथमिकशिष्य. प्रतिसुखबोधार्थमन्त्र ग्रन्थे संधेनियमो नास्तीति सर्वत्र ज्ञातव्यं । एवं विशेषगचतुष्टययुक्तभ्यो जिनेभ्यो नमः इत्यनेन मंगलार्थमनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारोस्त्विति संग्रहवाक्यं । अयैव कथ्यते इन्द्रशतैर्वन्दिता इन्द्रशतवन्दितास्तेभ्य इत्यनेन पूजातिशयप्रतिपादनाथ । किमुक्तं भवति-त एवेन्द्रशतनमस्काराहो नान्ये । कस्मात् । तेषां देवासुरादियुद्धदशनात् । त्रिभुवनाय शुद्धात्मरूपप्राप्त्युपायप्रतिपादकत्वाद्धितं,वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसंजातसहजापूर्वपरमानन्द२४, ज्योतिषो देवोंके २, मनुष्योंका १, और तिर्यंचोंका १, इस प्रकार सौ इन्द्र अनादिकालसे वर्तते हैं, सर्वज्ञ वोतराग देव भी अनादि कालसे हैं, इस कारण १०० इद्रोंकर नित्य ही बंदनीय हैं, अर्थात् देवाधिदेव त्रैलोक्यनाथ हैं । फिर कैसे हैं ? [ त्रिभुवनहितमधुरविशदवाक्येभ्यः ] तीन लोकके जीवोंके हित करनेवाले मधुर (मिष्ट-प्रिय ) और विशद कहिये निर्मल हैं वाक्य जिनके ऐसे हैं । अर्थात् स्वर्गलोक, मध्यलोक, अधोलोकवर्ती जो समस्त जीव हैं, तिनको अखडित निर्मल आत्मतत्त्वको प्राप्ति के लिये अनेक प्रकारके उपाय बताते हैं, इस कारण हितरूप हैं। तथा वे हो वचन मिष्ट हैं, क्योंकि जो परमार्थी रसिक जन हैं, तिनके मनको हरते हैं, इस कारण अतिशय मिष्ट ( प्रिय ) हैं। और वेही वचन निर्मल हैं. क्योंकि जिन वचनों में संशय विमोह, विभ्रम, ये तीन दोष वा पूर्वापर विरोधरूपी दोष नहीं लगते हैं; इसकारण निर्मल हैं। ये ही ( जिनेन्द्र भगवान्के अनेकान्तरूप ) वचन समस्त वस्तुओं के स्वरूपको यथार्थ दिखाते हैं; इसकारण प्रमाणभूत हैं; और जो अनुभवी पुरुष हैं, वे ही इन वचनोंको अंगीकार करनेके पात्र हैं। फिर कैसे हैं जिन ? [ अन्तातीतगुणेभ्यः ] अन्तरहित हैं गुण जिनके, अर्थात् क्षेत्रकर तथा कालकर जिनकी मर्यादा ( अन्त ) नहीं, ऐसे परम चैतन्य शक्तिरूप समस्त वस्तुओंको प्रकाश करनेवाले अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शनादि गुणोंका अन्त ( पार ) नहीं है। फिर कैसे हैं जिन ? [ जितम
१-जीवलोकाय त्रिभुवनाय, २-वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसंजातसहजापूर्वपरमानन्दरूपपारमार्थिकसुखरसास्वाक्समरसीमावरसिकजनमनोहारित्वात् मधुरम्, ३-"भवणालयचालीसा वितरदेवाण होंति बत्तीसा । कप्पामरचउवीसा चंदो सूरो गरो तिरिओ ॥१॥"
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