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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
काण्डपरिणतिमाहात्म्यानिवारयन्तोऽत्यन्तमुदासीना यथाशक्त्याऽऽत्मानमात्मनाऽऽत्मनि संचेतयमाना नित्योपयुक्ता निवसन्ति ते खलु स्वतत्त्वविश्रान्त्यनुसारेण क्रमेण कर्माणि सन्यसन्तोऽत्यन्तनिष्प्रमादा नितान्तनिष्कम्पमूर्तयो वनस्पतिभिरुपमीयमाना अपि दूरनिरस्तकर्मफलानुभूतयः कर्मानुभूतिनिरुत्सुकाः केवलज्ञानानुभूतिसमुपजाततात्त्विकानन्दनिभरतरास्तरसा संसारसमुद्रमुत्तीर्य शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतस्य भोक्तारो भवन्तीति ॥ १७२ ॥ कर्तुः प्रतिज्ञानिव्यू ढिसूचिका समापनेयम् :
मग्गप्पभावण? पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया । भणियं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं सुत्तं ॥१७३॥ ___ मार्गप्रभावनार्थ प्रवचनभक्तिप्रचोदितेन मया ।।
भणितं प्रवचनसारं पञ्चास्तिकायसंग्रहं सूत्रं ॥ १७३ ।। निराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं । ततः स्थितमेतन्निश्चयव्यवहारपरस्परसाध्यसाधकभावेन रागादिविकल्परहितपरमसमाधिबलेनैव मोक्षं लभते ॥ १७२ ॥ इति शास्त्रतात्पर्योपसंहारवाक्यं । एवं वाक्यपंचकेन कथितार्थस्य विवरणमुख्यत्वेन एकादशस्थले गाथा गता । अथ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवः स्वकीयप्रतिज्ञा निर्वाहयन् सन् ग्रन्थं समापयति;-पंचास्तिकायसंग्रह सूत्रं । क्रियाकांड परिणतिरूप प्रायश्चित्त करके अत्यन्त उदासीन भाव धारण करते हैं । फिर यथाशक्ति आपको आपके द्वारा आपमें ही वेदन करते हैं । सदा निजस्वरूपके उपयोगी होते हैं । जो ऐसे अनेकाम्तवादी साधक अवस्थाके धारण करनेवाले जीव हैं वे अपने तत्त्वकी थिरताके अनुसार क्रमकमसे कर्मोंका नाश करते हैं । अत्यन्त ही प्रमादसे रहित होते अडोल अवस्थाको धारण करते हैं। ऐसा जानो कि बनमें वनस्पति हैं । दूर किया है कर्मफल चेतनाका अनुभव जिन्होंने ऐसे, तथा कर्मचेतनाको अनुभूतिमें उत्साह रहित हैं । केवल मात्र ज्ञानचेतनाकी अनुभूतिसे आत्मीक सुखसे भरपूर हैं । वे शीघ्रही संसारसमुद्रसे पार होकर समस्त सिद्धान्तोंके मूल शाश्वत पदके भोक्ता होते हैं ॥ १७२ ।।
प्रन्थकर्त्ताने प्रतिज्ञा की थी कि मैं पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ कहूंगा, सो उसको संक्षेपमें ही करके समाप्त करते हैं;-[ मया ] मुझ कुन्दकुन्दाचार्यने [ पश्चास्तिकायसंग्रहं ] कालके विना पंचास्तिकायरूप जो पांच द्रव्य हैं उनके कथनका जिसमें संग्रह है ऐसा यह [ सूत्रं ] शब्द-अर्थ-गर्मित संक्षेप अक्षर-पद-वाक्य-रचनारूप सूत्र [ भणितं ] पूर्वाचार्योंकी परंपरा-शब्दब्रह्मानुसार कहा है । यह पञ्चास्तिकाय कैसा है ? । प्रवचनसारं ) द्वादशांगरूप जिनवाणीका रहस्य है । मैं कैसा हूं ? [ प्रवचनभक्तिप्रचोदितेन ] सिद्धान्त कहनेके अनुरागसे प्रेरित किया हुआ हूं। किसलिये यह
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