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________________ पश्चास्तिकायः । उक्तशुद्धसंप्रयोगस्य कथञ्चिद्बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्व निरासोऽयम् ;अरहंत सिद्धचेदिय पवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो । बंदि पुर्ण बहुसो ण दु सो कम्मक्खयं कुणदि ॥ १६६॥ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः । नाति पुण्यं बहुशो न तु स कर्मक्षयं करोति ॥ १६६ ॥ अर्हदादिभक्तिसंपन्नः कथञ्चिच्छुद्ध संप्रयोगोऽपि सन् जीवो जीवद्रागलवत्वाच्छुभोपयोगतामहन्, बहुशः पुण्यं बध्नाति न खलु सकलकर्मक्षयमारभते । ततः सर्वत्र रागकणिकाsपि परिहरणीया । परससमयप्रवृत्तिनिबन्धनत्वादिति ॥ १६६ ॥ स्त्रसमयोपलम्भाभावस्य रागैकहेतुत्वद्योतनमेतत्; जस्स हिदयेणुमत्तं वा परदव्वम्हि विज्जदे रागो । सोण विजाणदि समयं सगस्त सव्वागमधरोवि ॥१६७॥ २३९ अथ पूर्वोक्तशुद्ध संप्रयोगस्य पुण्यबंधं दृष्ट्वा मुख्यवृत्त्या मोक्ष निषेधयति; - अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानेषु भक्तिसंपन्नो जीवः बहुशः प्रचुरेण हु स्फुटं पुण्यं बध्नाति सो सः ण कम्मक्खयं कुदि नैव कर्मक्षयं करोति । अत्र निरास्रवशुद्ध निजात्मसंवित्या मोक्षो भवतीति हेतोः पराश्रित परिणामेन मोक्षो निषिद्ध इति सूत्रार्थः ॥ १६६ ॥ अथ शुद्धात्मोपलंभस्य परद्रव्य एव प्रतिबंध इति प्रज्ञापयति - यस्य हृदये मनसि अणुमेतं वा परमाणुमात्रोपि परदव्यं शुभा होता है ।। १६५ ।। आगे उक्त शुभोपयोगताको कथंचित् बन्धका कारण कहा इसकारण मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा कथन करते हैं; - [ अर्हत्सिद्ध चैत्य प्रवचनगण ज्ञानभक्तिसम्पन्नः ] अरहंत, सिद्ध, चैत्यालय, प्रतिमा, प्रवचन अर्थात् सिद्धान्त, मुनिसमूह, भेदविज्ञानादि ज्ञानकी भक्ति स्तुति सेवादिकसे परिपूर्ण प्रवीण पुरुष [ बहुश: ] बहुतप्रकार या बहुत बार [ पुण्यं ] अनेक प्रकारके शुभकर्मको [ बध्नाति ] बांधता है [ तु सः ] किंतु वह पुरुष [ कर्मक्षयं ] कर्मक्षय [ न ] नहीं [ करोति ] करता है । भावार्थ - जिस जीवके चित्तमें अरहंतादिककी भक्ति है उस पुरुष कथंचित् मोक्षमार्ग भी है, परन्तु भक्तिके रागांशसे शुभोपयोग भावों को नहीं छोड़ता, उसके बन्धपद्धतिका सर्वथा अभाव नहीं है । इस कारण उस भक्तिके राशिसे ही बहुत प्रकार पुण्यकर्मोंको बांधता है, किन्तु सकलकर्मक्षयको नहीं करता है । इस कारण मोक्षमार्गियोंको चाहिये कि भक्ति - रागकी कणिका को भी छोड़े, क्योंकि यह परसमयकी कारण है, परंपरासे मोक्षकी कारण है, साक्षात् मोक्षमार्गकी घातक है, इस कारण इसका निषेध है ।। १६६ ।। आगे इस जीवके जो स्वसमयकी प्राप्ति नहीं होती उसका राग ही एक कारण है, ऐसा कथन करते हैं; - [ वा ] अथवा [ यस्य ] जिस पुरुषके [ हृदये ] चित्तमें [ अणुमात्रः ] परमाणु मात्र भी [ परद्रव्ये ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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