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________________ २३७ पञ्चास्तिकायः । संबलितानीव घृतानि कथचिद्विरुद्धकारणत्वरूढेर्बन्धकारणान्यपि भवन्ति । यदा तु समस्तपरसमयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपया स्वसमयप्रवृत्या सङ्गच्छते, तदा निवृत्तकृशानुसंचलनानीव घृतानि विरुद्धकार्यकारणाभावाऽभावात्साक्षान्मोक्षकारणान्येव भवन्ति । ततः स्वसमयप्रवृत्तिनाम्नो जीवस्वभावनियतचरितस्य साक्षान्मोक्षमार्गत्वमुपपन्नमिति ॥ १६४ ॥ सूक्ष्मपरसमयस्वरूपाख्यानमेतत् ; अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो । हवदित्ति दुक्खमोक्खं परसमयरदो हवदि जीवो ॥१६५॥ हि य इदि मणिदं साधुभिरिदं भणितं कथितं तेहि दु बंधो व मोक्खो वा तैस्तु पराभितैबंधः स्वाश्रितैर्मोक्षो वेति । इतो विशेषः । शुद्धात्माश्रितानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षकारणानि भवन्ति, पराश्रितानि बंधकारणानि भवन्ति च । केन दृष्टान्तेनेति चेत् । यथा घृतानि स्वभावेन शीतलान्यपि पश्चादग्निसंयोगेन दाहकारणानि भवति तथा तान्यपि स्वभावेन मुक्तिकारणान्यपि पंचपरमेष्ठथादिप्रशस्तद्रव्याश्रितानि साक्षात्पुण्यबंधकारणानि भवन्ति मिथ्यात्वविषयकषायनिमित्तभूतपरद्रव्याश्रितानि पुनः पापबंधकारणान्यपि भवन्ति । तस्माद् ज्ञायते जीवस्वभावनियतचरितं मोक्षमार्ग, इति ।। १६४ ।। एवं शुद्धाशुद्धरत्नत्रयाभ्यां यथाक्रमेण मोक्षपुण्यबन्धौ भवत इति कथनरूपेण गाथा गता। तदनंतरं सूक्ष्मपरसमयव्याख्यानसंबंधित्वेन गाथापंचकं भवति, तत्रैका हैं । [ साधुभिः ] महापुरुषों द्वारा [ इति । इस प्रकार [ भणितं ] कहा गया है [ तैः तु ] उन ज्ञान-दर्शन-चारित्रके द्वारा तो [ बन्धः वा ] बंध भी होता है [ मोक्षः वा ] मोक्ष भी होता है। भावार्थ-दर्शन-ज्ञान-चारित्र दो प्रकारके हैं, एक सराग हैं, दूसरे वीतराग हैं। जो दर्शन ज्ञान-चारित्र राग लिये होते हैं उनको तो सराग रत्नत्रय कहते हैं और जो आत्मनिष्ठ वीतरागता लिये हों वे वीतराग रत्नत्रय कहाते हैं। क्योंकि रागभाव आत्मीक भावरहित परभाव है, परसमयरूप है, इसलिये यदि रत्नत्रय किंचिन्मात्र भी परसमयप्रवृत्तिसे मिले हों तो वे बन्धके कारण होते हैं, क्योंकि उनमें कथंचित्प्रकार विरुद्धकारणकी रूढि होती है। रत्नत्रय तो मोक्षका ही कारण है, परन्तु रागके संयोगसे बन्धका कारण भी होता है, ऐसी रूदि है। जैसे अग्निके संयोगसे घृत दाहका कारण होकर विरुद्ध कार्य करता है, स्वभाव से तो घृत शीतल ही है, इसीप्रकार रागके संयोगसे रत्नत्रय बंधका कारण है । जिस समय समस्त परसमयकी निर्वृत्ति होकर स्वसमयरूप स्वरूपमें प्रवृत्ति हो उस समय अग्निसंयोगरहित घृत, दाहादि विरुद्ध कार्योंका कारण नहीं होता। वैसे ही रत्नत्रय सरागताके अभावसे साक्षात् मोक्षका कारण होता है। इस कारण यह बात सिद्ध हुई कि जब यह आत्मा स्वसमयमें प्रवृत्त हो निज स्वाभाविक भावको आचरे उस ही समय मोक्षमार्गकी सिद्धि होती है ॥ १६४ ॥ आगे सूक्ष्म परसमयका स्वरूप कहा जाता है;-[ ज्ञानी ] सरागसम्यग्दृष्टी जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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