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________________ पञ्चास्तिकायः। १२१ एव जीवः कर्मफलभूतानां कथंचिदात्मनः सुखदुःखपरिणामानां कथंचिदिष्टानिष्टविषयाणां भोक्ता प्रसिद्ध इति ॥ ६८ ॥ कर्मसंयुक्तमुखेन प्रभुत्वगुणव्याख्यानमेतत् ; एवं कत्ता भोत्ता होज्झं अप्पा सगेहि कम्मेहिं । हिंडति पारमपार संसारं मोहसंछण्णों ॥६९॥ एवं कर्ता भोक्ता भवनात्मा स्वकैः कर्मभिः । हिंडते पारमपारं संसारं मोहसंछन्नः ।। ६९ ।। एवमयमात्मा प्रकटितप्रभुत्वशक्तिः स्वकैः कर्मभिर्गृहीतकर्तृत्वभोक्तृत्वाधिकारोऽनादिभावेण परमचैतन्यप्रकाशविपरीतेनाशुद्धचेतकभावेन । किं भोक्ता भवति ? कम्मफलं शुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मतत्वभावनोत्पन्नं यत्सहजशुद्धपरमसुखानुभवनफलं तस्माद्विपरीतं सांसारिकसुखदुःखानुभवनरूपं शुभाशुभकर्मफलमिति भावार्थः ॥ ६८ ॥ एवं पूर्वगाथा कर्मभोक्तृत्वमुख्यत्वेन, इयं तु गाथा कर्मकर्तृत्वभोक्तृत्वयोरुपसंहारमुख्यत्वेनेति गाथाद्वयं मतं । अथ पूर्व भणितमपि प्रभुत्वं पुनरपि कर्मसंयुक्तत्वमुख्यत्वेन दर्शयति;-एवं कत्ता भोत्ता होज्जं निश्चयेन कर्मकर्तृत्वभोक्तृत्वरहितोपि व्यवहारेणैवं पूर्वोक्तनयविभागेन कर्ता भोक्ता च भूत्वा । स कः ? अप्पा आत्मा । कैः कारणभूतैः ? सगेहि कम्मेहिं स्वकीयशुभाशुभद्रव्यभावकर्मभिः । एवंमूतः सन् किं करोति ? हिंडदि हिंडते भ्रमति । के ? संसारं निश्चयनयेनानंतसंसारव्याकर्ता है । ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मको अशुद्ध चेतनात्मक भाव निमित्तभूत हैं। इस कारण व्यवहारसे जीव द्रव्यकर्मका भी कर्ता है [ तु ] और [ जीवः ] आत्मद्रव्य जो है सो [ चेतकमावेन ] अपने अशुद्ध चेतनात्मक रागादि भाबोंसे [कर्मफलं ] साता असातारूप कर्मफलका [ भोक्ता ] भोगनेवाला [भवति ] होता है । भावार्थ-जैसे जीव और कर्म निश्चय-व्यवहारनयोंके द्वारा दोनों परस्पर एक दूसरे के कर्ता हैं वैसे ही दोनों भोक्ता नहीं हैं। भोक्ता केवल मात्र एक जीवद्रव्य ही है, क्योंकि आप चैतन्यस्वरूप है इस कारण पुद्गलद्रव्य अचेतन स्वभावसे निश्चय व्यवहार दोनों नयोंमेंसे एक भी नयसे भोक्ता नहीं है। इस कारण जीवद्रव्य निश्चय नयकी अपेक्षा अपने अशुद्ध चेतनात्मक सुखदुःखरूप परिणामोंका भोक्ता है । व्यवहारनयसे इष्टानिष्ट पदार्थोंका भोक्ता कहा जाता है ।। ६८ ॥ आगे कर्मसंयुक्त जीवकी मुख्यतासे प्रभुत्व गुणका व्याख्यान करते हैं;-[ स्वक: ] अनादि अविद्यासे उत्पन्न किये हुये अपने [ कर्मभिः ] ज्ञानावरणादिक कर्मोंके उदयसे [ आत्मा ] जीवद्रव्य [ एवं ] इस प्रकार [ कर्ता ] करनेवाला [ भोक्ता | भोगनेवाला [ भवन् ] होता हुआ [ पोरं ] भव्यकी अपेक्षा से सांत [अपारं 1 अभव्यकी अपेक्षा से अनंत [ संसार ] पंचपरातनरूप संसारको धारण कर अनेक स्वरूपसे चतुर्गतिमें [ हिंडते ] भ्रमण पञ्चा० १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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