SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१०] था । एक दिन अमीचंदको साँपने काट लिया और तत्काल उनकी मृत्यु हो गई। उनके मरणसमाचार सुनते ही राजचन्द्रजी अपने घर दादाजीके पास दौड़े आये और उनसे पूछा : 'दादाजी, क्या अमीचन्द मर गये ?' बालक राजचन्द्रका ऐसा सीधा प्रश्न सुनकर दादाजीने विचार किया कि इस बातका बालकको पता चलेगा तो डर जायगा अतः उनका ध्यान दूसरी ओर आकर्षित करनेके लिए दादाजीने उन्हें भोजन कर लेनेको कहा और इधर-उधरकी दूसरी बातें करने लगे। 'परन्तु, बालक राजचन्द्रने मर जानेके बारेमें प्रथमवार ही सुना था इसलिए विशेष जिज्ञासापूर्वक वे पूछ बैठे : 'मर जानेका क्या अर्थ है ?' दादाजीने कहा-उसमेंसे जीव निकल गया है। अब वह चलना-फिरना, खाना-पीना कुछ नहीं कर सकता, इसलिए उसे तालाबके पास स्मशान भूमिमें जला देवेंगे।' इतना सुनकर राजचन्द्रजी थोड़ी देर तो घरमें इधर-उधर घूमते रहे, बादमें चुपचाप तालाबके पास गये और वहां बबूलके एक वृक्षपर चढ़कर देखा तो सचमुच कुटुम्बके लोग उसके शरीरको जला रहे हैं। इसप्रकार एक परिचित और सज्जन व्यक्तिको जलाता देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे विचारने लगे कि यह सब क्या है ! उनके अन्तरमें विचारोंकी तीव्र खलबली-सी मच गई और वे गहन विचारमें डूब गये। इसी समय अचानक चित्तपरसे भारी आवरण हट गया और उन्हें पूर्व भवोंकी स्मृति हो आई । बादमें एक वार वे जूनागढ़का किला देखने गये तब पूर्व स्मतिज्ञानकी विशेष वृद्धि हई। इस पूर्वस्मतिरूप-ज्ञानने उनके जीवनमें प्रेरणाका अपर्व नवीनअध्याय जोड़ा। श्रीमद्जीकी पढ़ाई विशेष नहीं हो पाई थी फिरभी, वे संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओंके ज्ञाता थे एवं जैन आगमोंके असाधारण वेत्ता और मर्मज्ञ थे। उनकी क्षयोपशम-शक्ति इतनी विशाल थी कि जिस काव्य या सूत्रका मर्म बड़े-बड़े विद्वान लोग नहीं बता सकते थे उसका यथार्थ विश्लेषण उन्होंने सहजरूप में किया है। किसी भी विषयका सांगोपांग विवेचन करना उनके अधिकारकी बात थी । उन्हें अल्प-वयमें ही तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति हो गई थी, जैसा कि उन्होंने स्वयं एक काव्यमें लिखा है लघुवयथी अद्भुत थयो, तत्त्वज्ञाननो बोध । एज सूचवे एम के, गति आगति कां शोध ? जे संस्कार अवा घटे, अति अभ्यासे कांय, विना परिश्रम ते भयो, भवशंका शी त्यांय ? -अर्थात् छोटी अवस्थामें मुझे अद्भुत तत्त्वज्ञानका बोध हुआ है, यही सूचित करता है कि अब पुनर्जन्मके शोधकी क्या आवश्यकता है ? और जो संस्कार अत्यन्त अभ्यासके द्वारा उत्पन्न होते हैं वे मुझे बिना किसी परिश्रमके ही प्राप्त हो गये हैं, फिर वहां भव-शंकाका क्या काम ? ( पूर्वभवके ज्ञानसे आत्माकी श्रद्धा निश्चल हो गई है । ) १. इस प्रसंगकी चर्चा कच्छके एक वणिक बंधु पदमशीभाई ठाकरशीके पूछनेपर बम्बईमें भूलेश्वरके वि० जैन मन्दिरमें सं. १९४२ में श्रीमद्जीने की। २. देखिए पं. इनारसीदासजीके 'समता रमता उरषता' पबका विवेचन 'श्रीमदुराजचन्द्र' ( गुजराती) पत्रांक ४३८ । ३. आनदधत पौवोसीके कुछ पद्योंका विवेचन, उपरोक्त प्रग्य में पत्रांक ७५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy