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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
एकस्यात्मनोऽनेकज्ञानात्मकत्वसमर्थनमेतत् :
ण वियपदि णाणादों णाणी णाणाणि होंति णेगाणि । तम्हा दु विस्सरूवं भणियं दवियत्ति णाणीहि ॥ ४३ ॥
न विकल्पते ज्ञानात् ज्ञानी ज्ञानानि भवंत्यनेकानि । तस्मात्तु विश्वरूपं भणितं द्रव्यमिति ज्ञानिभिः ॥ ४३ ॥
न तावज्ज्ञानी ज्ञानात् पृथग्भवति, द्वयोरप्येकास्तिस्वनिर्वृत्तत्वेनैकद्रव्यत्वात् । द्वयोतावलोकेन प्रत्यक्षं पश्यति तदवधिदर्शनं रागादिदोषरहितचिदानंदैकस्वभावनिजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिर्विकल्पध्यानेन निरवशेषकेवलदर्शनावरणक्षये सति जगत्त्रय कालत्रयवर्तिवस्तुगतसत्तासामान्यमेकसमयेन पश्यति तदनिधनमनंतविषयं स्वाभाविकं केवलदर्शनं भवतीति । अत्र केवल - दर्शनाविनाभूतानंतगुणाधारः शुद्धजीवास्तिकाय एवोपादेय इत्यभिप्रायः ॥ ४२ ॥ एवं दर्शनोपयोगव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथा गता । अथात्मनो ज्ञानादिगुणैः सह संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेपि निश्चयेन प्रदेशाभिन्नत्वं मत्याद्यनेकज्ञानत्वं च व्यवस्थापयति सूत्रत्रयेण ण वियप्पदि न विकल्पते न भेदेन पृथक् क्रियते । कोऽसौ ? जाणी ज्ञानी । कस्मात्सकाशात् । णाणादो ज्ञानगुणात् । तर्हि ज्ञानमप्येकं भविष्यति । नैवं । णाणाणि होंति गाणि मत्यादिज्ञानानि भवत्यनेकानि यस्मादनेकानि ज्ञानानि भवन्ति तम्हा दु विस्सरूवं भणियं तस्मात्कारणादनेमात्र है । जो विशेषरूप जाने उसको ज्ञान कहते हैं । इस कारण दर्शनका सामान्य जानना लक्षण है। आत्मा स्वभाविक भावोंसे सर्वांग प्रदेशोंमें निर्मल अनंतदर्शनमयी है परन्तु वही आत्मा अनादि दर्शनावरण कर्मके उदयसे आच्छादित है, इसकारण दर्शन शक्तिसे रहित है । उसही आत्माके अंतरंग चक्षुदर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशम से बहिरंग नेत्रके अवलंबनसे किंचित् मूर्तीक द्रव्य जिसके द्वारा देखा जाय उसका नाम चक्षुदर्शन कहा जाता है । और अंतरंग में अचक्षुदर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशमसे बहिरंग नेत्र इन्द्रियके बिना चार इन्द्रियों और द्रव्यमनके अवलंबनसे किंचित् मूर्तीक द्रव्य अमूर्तीक द्रव्य जिसके द्वारा देखे जांय उसका नाम अचक्षुदर्शन कहा जाता है । और जो अवधि दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोपशम से किंचिन्मूर्तीक द्रव्योंको प्रत्यक्ष देखे उसका नाम अवधिदर्शन है । और जिसके द्वारा सर्वथा प्रकार दर्शनावरणीय कर्मके क्षयसे समस्त मूर्तीक अमूर्तीिक पदार्थों को प्रत्यक्ष देखा जाय उसको केवलदर्शन कहते हैं । इस प्रकार दर्शनका स्वरूप जानना ।। ४२ ।। आगे कहते हैं कि एक आत्मा के अनेक ज्ञान होते हैं, इसमें कुछ दूषण नहीं है - [ ज्ञानात् ] ज्ञानमुगुसे [ ज्ञानी ] आत्मा [ न विकल्पते ] भेद भावको प्राप्त नहीं होता है । अर्थात् - परमार्थसे तो गुणगुणीमें भेद
१ आत्मा २ आत्मज्ञानयोः ।
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