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________________ श्रीमदराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ज्ञानं । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तदवधिज्ञानम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव परमनोगतं मूर्तद्रव्यं विकलं विशेषेणावबुध्यते तन्मनःपर्ययज्ञानम् । यत्सकलावरणात्यंतक्षये केवल एव मूर्तामूर्तद्रव्यं सकलं विशेषेणावबुध्यते तत्स्वाभाविक केवलज्ञानम् । मिथ्यादर्शनोंदयसहचरितमाभिनिबोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम् । मिथ्यादर्शनोदयसहचरितं श्रुतज्ञानमेव कुश्रुतज्ञानं । मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमवधिज्ञानमेव विभङ्गज्ञानमिति स्वरूपाभिधानम् । इत्थं मतिज्ञानादिज्ञानोपयोगाष्टकं व्याख्यातम् ॥४१।। दर्शनोपयोगविशेषाणां नामस्वरूपाभिधानमेतत्;दसणमवि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं । अणिधणमर्णतविसर्य केवलियं चावि पण्णतं ॥४२॥ गवशेन बहुधा भिद्यते तथा निश्चयनयेनाखंडैकप्रतिभासस्वरूपोप्यात्मा व्यवहारनयेन कर्मपटलवेष्टितः सन्मतिज्ञानादिभेदेन बहुधा भिद्यत इति ॥ ४१ ॥ इत्यष्टविधज्ञानोपयोगसंज्ञाकथनरूपेण गाथा गता । अथ दर्शनोपयोगभेदानां संज्ञां स्वरूपं च प्रतिपादयति;-चक्षुर्दर्शनमचक्षुनिरावरण शुद्धझानसंयुक्त है। परंतु अनादिकालसे लेकर कर्मसंयोगसे दूषित हुआ प्रवर्तित है। इसलिये सर्वांग असंख्यात प्रदेशोंमें ज्ञानावरण कर्मके द्वारा आच्छादित है। उस ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे मतिज्ञान प्रगट होता है। तब मन और पांच इन्द्रियोंके अबलंबनसे किंचित् मूर्तीक अमूर्तीक द्रव्यको विशेषताकर जिस ज्ञानके द्वारा परोझरूप जानता है उसका नाम मतिज्ञान है। और उस ही झानावरण कर्मके क्षयोपशमसे मनके अवलंबसे किंचिन्मूर्तीक अमूर्तीक द्रव्य जिसके द्वारा जाना जाय उस ज्ञानका नाम श्रुतज्ञान है। यदि कोई यहां पूछ कि श्रुतज्ञान तो एकेन्द्रियसे लगाकर असैनी जीव पर्यत कहा है। इसका समाधान यह है कि उनके मिथ्याज्ञान है, इस कारण वह श्रुतज्ञान नहीं लेना, और अक्षरात्मक श्रुतज्ञानको ही प्रधानता है, इस कारण भी वह श्रतज्ञान नहीं लेना । मनके अवलंबनसे जो परोक्षरूप जाना जाय उस श्रतज्ञानको द्रव्यभावके द्वारा जानना और उसही ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जिस झानके द्वारा एकदेशप्रत्यक्षरूप किंचिन्मूर्तीक द्रव्य जाने उसका नाम अवधिज्ञान है। और उसही ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे अन्य जीवके मनोगत मूर्तीक द्रव्यको एकदेश प्रत्यक्ष जिस ज्ञानके द्वारा जाने, उसका नाम मनःपर्ययज्ञान कहा जाता है। और सर्वथा प्रकार झानावरण कर्म के क्षय होनेसे जिस ज्ञानके द्वारा समस्त मूर्तीक अमूर्तीक द्रव्य, गुण, पर्यायसहित प्रत्यक्ष जाने जाय उसका नाम केवलज्ञान है। मिथ्यादर्शनसहित जो मतिश्रुतअवधिज्ञान हैं, वे ही कुमति कुश्रुत कुअवधिज्ञान कहलाते हैं । यह आठ प्रकारके ज्ञान जिनागमसे विशेषतया जानने चाहिये ॥४१॥ अब दर्शनोपयोगके नाम और स्वरूपका कथन करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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