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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशानमालायाम् । शक्तिरसहायः स्वयमेव युगपत्समग्रं जानाति पश्यति, स्वप्रत्ययममूर्तसंबंधमव्यावाधमनंतसुखमनुभवति च । ततः सिद्धस्य समस्तं स्वयमेव जानतः पश्यतः, सुखमनुभवतश्च, स्वं न परेण प्रयोजनमिति ॥ २९ ॥ निषेधे समर्थो न चान्योन्ध इव । यस्तु जगत्रयं कालत्रयं जानाति स सर्वज्ञनिषेधं कथमपि न करोति । कस्मात् ? जगत्रयकालत्रयविषयपरिज्ञानसहितत्वेन स्वयमेव सर्वज्ञत्वादिति । किंचानुपलब्धेरिति हेतुवचनं तदयुक्तं । कथमिति चेत् । किं भवतां सर्वज्ञानुपलब्धिरुत जगवत्रयकालत्रयवर्तिपुरुषाणां वा । यदि भवतामनुपलब्धिरेतावता सर्वज्ञाभावो न भवति । कथमिति चेत् । परमाण्वादिसूक्ष्मपदार्थाः परिचितोवृत्तयश्च भवद्भिर्यदि न ज्ञायते तर्हि किं न सन्ति । अथ जगतत्रयकालत्रयवर्ति पुरुषाणां सर्वज्ञानुपलब्धेस्तत्कथं ज्ञातं भवद्भिरिति पूर्वमेवं विचारितं तिष्ठति, इति हेतुदूषणं । यदप्युक्त खरविषाणवदिति दृष्टांतवचनं, तदप्ययुक्त । कथमिति चेत् । खरे विषाणं नास्ति न सर्वत्र, गवादौ प्रत्यक्षेण दृश्यते तथा सर्वज्ञपि विवक्षितदेशकाले नास्ति न च सर्वत्र इति संक्षेपेण हेतुदूषणं दृष्टांतदूषणं च ज्ञातव्यं । अथ मतं सर्वज्ञाभावे दूषणं दत्तं भवद्भिस्तर्हि सर्वज्ञसद्भावे किं प्रमाणं । तत्र प्रमाणं कथ्यते-अस्ति सर्वज्ञः पूर्वोक्तप्रकारेण बाधकप्रमाणाभावात् स्वसंवेद्यसुखदुःखादिवदिति । अथवा द्वितीयमनुमानप्रमाणं कथ्यते । तद्यथा । सूक्ष्माव्यवहितदेशांतरितकालांतरितस्वभावांतरितार्था धर्मिणः कस्यापि पुरुषविशेषस्य प्रत्यक्षा भवंतीति साध्यो धर्मः । कस्माद्धेतोः । अनुमानविषयत्वात् । यद्यदनुमानविषयं तत्तत्कस्यापि प्रत्यक्षं दृष्टं, यथाग्न्यादि अनुमानविषयाश्चैते तस्मात्कस्यापि प्रत्यक्षा भवंतीति प्रयोजन नहीं है । यहाँ कोई नास्तिकमती तर्क करता है कि, सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि सबका जानने देखनेवाला प्रत्यक्षमें कोई नहीं दीखता । जैसे गर्दभके सींग नहीं हैं, वैसे ही कोई सर्वज्ञ नहीं है । उत्तर-सर्वज्ञ इस देशमें नहीं कि इस कालमें ही नहीं अथवा तीन लोकमें ही नहीं या तीन कालमें ही नहीं ? यदि कहो कि इस देशमें और इस कालमें नहीं तो ठीक है, क्योंकि इस समय कोई सर्वज्ञ प्रत्यक्ष देखने में नहीं आता । और यदि कहो कि तीन लोकमें तथा तीन कालमें भी नहीं है, तो तुमने यह बात किसप्रकार जानी ? क्योंकि तीन लोक और तीन कालकी बात सर्वज्ञके विना कोई जान ही नहीं सकता, और जो तुमने यह बात निश्चय करके जान ली कि कहीं भी सर्वज्ञ नहीं और किसी कालमें भी न तो हुआ न होगा, तो हम कहते हैं कि तुम ही सर्वज्ञ हो, क्योंकि जो तीन लोक और तीन कालकी जाने वही सर्वज्ञ है। और यदि तुम तीन लोक और तीन कालकी बात नहीं जानते तो तुमने तीन लोक और तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं है, ऐसा किस प्रकार जाना ? जो सबका जानने देखने वाला हो वही सर्वज्ञका निषेध कर सकता है और किसीकी भी शक्ति नहीं है । १ स्वास्योत्यं सुखम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002941
Book TitlePanchastikaya
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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