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________________ सन्देश रासक [तृतीय प्रक्रम गिट्ठर करुणु सद्दु मणमहि लव, _____ दड्ढा महिल होइ गयमहिलव । इम इक्किकह करुण भणंतह, पहिय ण कुइ धीरवइ खणंतह ॥ १६६ ॥ अच्छिहि जिह सन्निह घर कंतय", __ रच्छिहि" रमिहि ति रासु रमंतय" ।। करिवि सिंगारु विविह आहरणिहिं', चित्तविचित्तइ तणुपंगुरणिहि ॥ १६७ ॥ तिलउ" भालयलि तुरक्कि तिलक्किवि, कुंकुमि चंदणि तणु चच्चंकिवि । सोरंडहिं करि लियहि फिरंतिहि", दिव्वमणोहरु गेउ गिरंतिहि ॥ १६८ ॥ - 1 A कसणु। 2 C मह न महिं लवु। 3 A दढा; C दट्ठ। 4 B इक्कक्कह, C इक्कंकह । 5A णु। 6 B कुणंतहं। 7 B अच्छिइ; C अच्छय। 8 A सन्निहि; C सन्नय । 9C परि। 10 A कंतइ। 11 A रच्छइ। 12 A रमहि। 13 A भमंतय । 14 A करवि। 15 A आहरणहि। 16 A पंगुरणहि; B पंगुरणइ। 17 A तिलु । 18 C तुरिकि । 19 A सोरडिहि; C सोरंडह। 20 B किरि। 21 B फिरंतहि। 22 B गिरतहि । [टिप्पनकरूपा व्याख्या] [१६६] हे सारसि ! निष्ठुरं करुणशब्दं मनोमध्ये लव । विरहार्ता स्त्री तव शब्देन गतमहोल(त्स)वा भवन्ति(ति)। एवं एकं एकं प्रति करुणशब्दं भणन्त्या, तथापि कोऽपि न धीरयति ॥ १६६ ॥ [१६७] यासां स्त्रीणां संनिधौ गृहे कान्ताः सन्ति, रथ्यासु रासं रमन्त्यस्ताः रमन्ति । विविधनानाप्रकारैः सि(श)ङ्गारं कृत्वा रमन्ति । कैः चित्रविचित्रशरीरप्रावरणैः ॥१६७॥ *** [अवचूरिका] ---- . [१६६] हे सारसि ! निष्ठुरं करुणशब्दं मनोमध्ये लव । विरहार्ता स्त्री तव शब्देन गतमहो. सवा भवति । एवमेकमेकं प्रति करुणशब्द भणन्त्या, तथापि को न धीरयति ॥ [१६७] यासां स्त्रीणां सन्निधौ गृहे कान्ताः सन्ति, ता रथ्यासु रासं रमन्त्यो भ्रमम्ति । विवि. भाभरणैः झारं कृत्वा, चित्रविचित्रैस्तनुपङ्गुरणैर्वस्त्रैश्च ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002918
Book TitleSandesha Rasaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbdul Rahman, Jinvijay, H C Bhayani
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1945
Total Pages282
LanguageSanskrit, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size17 MB
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