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प्रस्तावना
११
आगळ जेम में प्रसंगोपात जणाव्यु छे तेम अहिं पण जणाववान रघु के फळादेशनी बाबतमां वा.सं. संक्षिप्त छ जो के सचोट पण छे ज्यारे भ. सं ए बाबतमा पुनरुक्तिना दोषे विस्तृन बने छे. मतलब के वा. सं. ज्यां उत्पात अशुभ छे, अनिष्टकारी छे, भयकारी छे, राजभयोत्पादक छे, नगरभयोत्पादक छे, सुभिक्ष करवावाळो छे वगेरे वगेरे कही अटकी जाय छे त्यां भ. सं. फळादेशने विगतथी चर्ची एम प्रतिपादे छे के ए उत्पात सोंघवारी-मोघवारी करनारो छे, चोरवर्गनो भय उत्पन्न करनारो छे, अनावृष्टि के अतिवृष्टिनो भय उभो करनारो छे, परचक्रभय, मरकी आदिनो भय, ब्राह्यण-क्षत्रियवैश्य के शूद्रने भयकारक, सिंधु-सौवीर-सौराष्ट्रादि देशोने बाधाकारक छे, वनिता तथा लेख्यजीवीओने अशांति कारक छ, तापस-साधु-निर्ग्रन्थोने आधिकारक छे, तथा पुररोध, प्रधानवध, मुख्यवध वगेरे वगेरे उत्पन्न करे छ एम विशिष्ट फळादेश करे छे. भ. सं. नी उत्पातना वर्णन पूरती आ लाक्षणिकता खास नोंधने पात्र छे. फळादेशर्नु आ विशदीकरण अने स्पष्टीकरण भद्रबाहुसंहिताकारनी आ उत्पात विषयक अनुभव ज्ञाननी, अवलोकन शक्तिनी, अने कोइ एक खास परंपराना वारसापणानी द्योतक छे.
वा. सं. मां लिंगवैकृत, अग्निवैकृत, वृक्षवैकृत, सस्यवैकृत, वृष्टिवैकृत, जलवैकृत, प्रसववैकृत, चतुष्पाद वैकृत, वायव्यचकृत, भृगपक्षी विकार, शक्रध्वजेन्द्रकीलवैकृतादि विभागमां बधा उत्पातोने विभक्त करवामां आव्या छे. आ विभागोनो अर्थ सरल छे एटले एना विषे हं करुं अहीं लखतो नथी. भ. सं. मां में हमणां जकडं तेम विभागोनी आवी व्यवस्था नथी. तेथी अत्रे ए श्लोकोनुं निनोक्त विभागीकरण आपुं छु:लिंगवैकृतमा ५८, ६१, ८६, ८७ थी १०२, १७७ थी जलवैकृतमा ३९ थी ४३ श्लोको. १८० श्लोको.
प्रसववैकृतमा १०, ११ श्लोको. अग्निवैकृतमां ३, १५, १६, ११३ श्लोको.
चतुष्पादवैकृतमा ५, १५२ थी १७२ श्लोको. वृक्षवैकृतमा १७ थी २०, २१ थी ३८, ४५, ४९, १२९ वायव्यवैकृतमा ५०, १७२ श्लोको. श्लोको.
मृगपक्षीविकारमा ६, ४८, ११०, ११५, १४५, १५२ सस्यवैकृतमा एके य श्लोक नथी.
थी १७२ श्लोको. वृष्टिवैकृतमा ४, १३, १४, १०९, ११२ श्लोको. | शक्रध्वजेंद्रकीलवैकृतमा एके य श्लोक नथी.
भ. सं. ना ८७ थी १०२, ११७ थी १२०, १७३ थी १७६ श्लोकोनो समावेश दिव्य उत्पातमां पण थई शके; कारण के वा. सं. मा उत्पातोनुं एक बीजं पण विभागीकरण छे अने ते छे दिव्य, आंतरीक्ष, अने भौम, आ दृष्टिए बधा उत्पातोने एत्रण मोटा विभागोमां पण वहेंची शकाय. भ. सं. ना ८७ थी १०२ श्लोकोने लिंगवैकृतमां गणान्या छे छतां तेने दिव्य उत्पात तरीके पण गणावी शकाय तेम छे कारण के ए बन्नेमा समाविष्ट थता उत्पातो वा. सं. मां सरखा ज छे. भ. सं. मां अन्य उत्पातो जेवा के निर्जीवन भाषण, विपरीत छाया दर्शन, तुलामाननुं हसन, पापस्वप्न, जुदी-जुदी मूर्तिओना उत्पातो, जुदा-जुदा पशु-पक्षीओना उत्पातो, जुदा-जुदा ग्रहो अने नक्षत्रोना उत्पातो वगेरे पण चा छे. ते एक या अन्य रीते वा. सं. गत उपर्युक्त अगियार विभागोमां अथवा दिव्यादि त्रण मोटा विभागोमां शक्यतानुसार विभक्त करी शकाय तेम छे. भ. सं. मां सस्यवकृतमां अने शकध्वजेंद्रकीलवैकृत नामना विभागमा समाविष्ट थई शके एवा कोई उत्पातो वर्णव्या नथी तेथी ते विभागो खाली छे. भ. सं. मां ए विभागो पूरती खामी छे एम पण नथी कारण के एक विभागमां समाविष्ट थता उत्पातो बीजा विभागमां पण अंतर्गत थई शके तेम छ:-दाखला तरीके आवता उत्पातो मृगपक्षी विकारमा खतवी शकाय तेम छे.
भ. सं. मां ग्रहोना उत्पातो, मुर्तिओना उत्पातो अने गज, तथा हयना उत्पातो अतिशय लंबाणथी चा छे ए पण एनी अन्य विशिष्टता खास नोंधने पात्र छे.
उत्पातनी सामान्य व्याख्या “प्रकृतेरन्यत्वमुत्पातः" (वा. सं. ४६; १) अने "प्रकृतेर्यो विपर्यासः स उत्पातः प्रकीर्तितः" (भ. सं. १४, २) वचे साम्य छे. राजानुं पोतानुं शरीर, पुत्र, खजानो, वाहन, पुर, स्त्री, पुरोहित, अने प्रजामा उत्पातनुं फळ -शुभ अने अशुभ- देखा दे छे. वा. सं. (४६,७) अने भ.सं. (१४; १७७) मां-बन्नेमांएवी मतलबना कथनो आवे छे. दिव्य, आंतरीक्ष, अने भौम एत्रण मोटा विभागमा उत्पातोनुं जे वर्गीकरण करवामां आव्युं छे ते बन्ने संहिता ग्रंथोमां समान छे (भ. सं. १४, २. वा. सं. ४६; २).
उत्पातो आवो प्रबळ अनर्थ उत्पन्न करे छे. तो पछी एमांथी बचवानो कोई उपाय खरो ? वा. सं. अमुक आचार्यो कहे छे एम कही दिव्य उत्पातनी शांति शक्य नथी परंतु बीजा उत्पातनी शांति शक्य छे एम कहे छे (४६,५) ज्यारे वराहमिहिर “प्रभूतकनकानगोमहीदानैः" ए दिव्य उत्पातनी शांति पण हांसल करी शकाय छे एम कहे छ (वा. सं. ४६, ६). भ. सं. (१४; १८०) एत्रणेयनी शांति, जो देव, प्रव्रजित, अने विप्रनी पूजा राजा करे तो, पुनः स्थापी शकाय
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