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In सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
षट्त्रिंश अध्ययन [५३६
एगन्तरमायाम, कटु संवच्छरे दुवे ।
तओ संवच्छरद्धं तु, नाइविगिटुं तवं चरे ॥२५३॥ फिर दो वर्षों तक (नवें दसवें वर्ष में) एकान्तर तप (एक दिन तप, एक दिन पारणा) करके पारणे के दिन आचाम्ल (आयंबिल) करे। फिर ग्यारहवें वर्ष के पहले छह मास में तेला-चौला-पचौला आदि अतिविकृष्ट तप न करे ॥२५३॥
Then in two years, i.e., in ninth and tenth year, he should observe Ekāntara (one day fast and second day to take food) fast penance and should practise ācāmla-āyambila on the day he takes food. Again in the first six months of the eleventh year he should not observe rigorous fast penances, like-three days', four days, five days' fast penances. (253)
तओ संवच्छरद्धं तु, विगिटुं तु तवं चरे।
परिमियं चेव आयाम, तंमि संवच्छरे करे ॥२५४॥ तदुपरान्त छह मास तक विकृष्ट तप का आचरण करे। इस संपूर्ण वर्ष में परिमित-पारणे के दिन सीमित आचाम्ल (तप) करे ॥२५४॥
After that in the next six months of eleventh year, the sage should observe rigorous fast penances. Thus in this whole year he should observe äcämla penance on the days he takes food. (254)
कोडीसहियमायाम, कटु संवच्छरे मुणी ।
मासद्धमासिएणं तु, आहारेण तवं चरे ॥२५५॥ (बारहवें वर्ष में) एक वर्ष तक कोटि सहित-लगातार आचाम्ल (तप) करके मुनि पक्ष या मास के आहार से-पाक्षिक अथवा मासिक-मासखमण का तप-अनशन करे ॥२५॥ ___ In the last (twelfth) year, the sage, consecutively or continuously observing acāmla penance should practise the fast penance of a fortnight or a month. (255) समाधि मरण में बाधक-साधक तत्व
कन्दप्पमाभिओगं, किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च ।
एयाओ दुग्गईओ, मरणम्मि विराहिया होन्ति ॥२५६॥ पाँच प्रकार की भावनाएँ दुर्गति रूप हैं, दुर्गति में ले जाने वाली हैं। ये भावनाएँ है-(१) कान्दी (२) आभियोगिकी, (३) किल्विषिकी (४) मोही (सम्मोही) और (५) आसुरी। मरण के समय ये भावनाएँ संयम की विराधिका होती हैं ॥२५६॥
The five kinds of feelings lead to evil existences. These are-(1) kändarpi (2) abhiyogiki (3) kilvisiki (4) mohi-sammohi and (5) āsuri. At the time of death, these feelings become the obstructions to restrain. (256)
मिच्छादसणरत्ता, सनियाण . हु हिंसगा । इय जे मरन्ति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥२५७॥
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