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५३५] षट्त्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
उपसंहार और साधक को निर्देश
संसारत्था य सिद्धा य, इइ जीवा वियाहिया ।
रूविणो चेवऽरूवी य, अजीवा दुविहा वि य ॥२४८॥ संसारस्थ (संसारी) तथा सिद्ध-इन दोनों प्रकार के जीवों का कथन किया गया है। साथ ही रूपी और अरूपी दोनों प्रकार के अजीवों का भी वर्णन हो गया ॥२४॥
Thus here described the empirical and liberated-both types of souls and alongwith the description of formless and with form non-soul substances has been completed. (248)
इइ जीवमजीवे य, सोच्चा सद्दहिऊण य ।
सव्वनयाण अणुमए, रमेज्जा संजमे मुणी ॥२४९॥ इस जीव और अजीव की व्याख्या को सुनकर, उन पर श्रद्धा करके सभी प्रकार की ज्ञान व क्रिया, नयों से अनुमत (नैगम आदि सर्व नयों से अनुमत-सत्यतः प्रमाणित) संयम में मुनि रमण करे ॥२४९।।
Thus listening the explanation of soul and non-soul substances, fixing faith in it, in accordance with all types of knowledge, activities and viewpoints, authentically proved-the monk should indulge himself in restrain. (249) संलेखना : साधक की अन्तिम साधना
तओ बहूणि वासाणि, सामण्णमणुपालिया ।
इमेण कमजोगेण, अप्पाणं संलिहे मुणी ॥२५०॥ इसके उपरान्त बहुत वर्षों तक श्रमणधर्म का पालन करके मुनि इस क्रम योग से आत्मा की संलेखना (विषय-कषायादि विकारों की क्षीणता) करे ॥२५०॥
After it, practising sagehood upto many years, the sage should mortify his own soul with due order by diminishing passions etc., regularly. (250)
बारसेव उ वासाइं, संलेहुक्कोसिया भवे ।
संवच्छरं मज्झिमिया, छम्मासा य जहनिया ॥२५१॥ बारह वर्ष की संलेखना उत्कृष्ट, एक वर्ष की मध्यम और जघन्य संलेखना छह मास की होती है ॥२५॥
Longest duration of the mortification of soul is of twelve years, the middle is of one year and the shortest is of six months. (251)
पढमे वासचउक्कम्मि, विगईनिज्जूहणं करे ।
बिइए वासचउक्कम्मि, विचित्तं तु तवं चरे ॥२५२॥ पहले चार वर्षों में दूध-दही-घी-तेल आदि विकृति कारक पदार्थों का त्याग करे तथा दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार के तपों का आचरण (तपश्चरण) करे ॥२५२॥ ____During the first four years, sage should renounce the dressed food, like-milk, curd, ghee, oil etc., and in the seconed four years should practise various types of penances. (252)
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