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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
प्रथम अध्ययन [१४
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धर्म (धर्मोपासना) से युक्त (अर्जित) और तत्त्वज्ञ आचार्यों द्वारा आचरित व्यवहार का आचरण करने वाले साधक की कहीं भी किसी भी व्यक्ति के द्वारा निन्दा नहीं की जाती ॥४२॥
cquired by adherence of religious observations and practised by enlightened preceptors, pursuing such behaviour, the disciple no-where and never incurs blame by any person. (42)
मणोगयं वक्कगयं, जाणित्ताऽऽयरियस्स उ ।
तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ॥४३॥ गुरुजनों (आचार्य) के मनोगत और वचन के भावों को जानकर शिष्य वाणी से उन्हें स्वीकार करे और फिर आचरण में उतारे ॥४३॥
Guessing the preceptor's thoughts and purport of his words disciple should express his assent clearly in words and then practise it in action. (43)
विते अचोइए निच्चं, खिप्पं हवइ सुचोइए ।
जहोवइटें सुकयं, किच्चाई कुव्वई सया ॥४४॥ विनीत शिष्य गुरु द्वारा बिना प्रेरणा किये ही सुप्रेरित के समान कार्य करने के लिए तत्पर रहता है और गुरु द्वारा बताये गये कार्य को तो शीघ्र ही भली भाँति सम्पन्न कर देता है ॥४४॥
The disciplined disciple always remains ready to execute his duties even without the inspiration of the preacher and if the preacher tells for any work he does it quickly and nicely. (44)
नच्चा नमइ मेहावी, लोए कित्ती से जायए ।
हवई किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगई जहा ॥४५॥ जो बुद्धिमान शिष्य विनय के स्वरूप को जानकर विनम्रता धारण कर लेता है, संसार में उसका यश स्वतः बढ़ता है। जिस प्रकार प्राणियों के लिये यह पृथ्वी आधारभूत है, उसी प्रकार वह धार्मिक जनों के लिए शरणभूत होता है ॥४५॥
Knowing discipline an intelligent disciple bows, so his fame automatically enhances. He becomes the shelter of all religious people as the earth is for all living beings. (45)
पुज्जा जस्स पसीयन्ति, संबुद्धा पुव्वसंधुया ।
पसन्ना लाभइस्सन्ति, विउलं अट्ठियं सुयं ॥४६॥ शिष्य की विनम्रता आदि से परिचित हुए आचार्य आदि गुरुजन उस पर प्रसन्न होकर उसे मोक्ष का लाभ देने वाला अर्थगंभीर विपुल ज्ञान प्रदान करते हैं ॥४६॥
Worthy, enlightened and well versed in conduct preceptors and preachers satisfied and fully acquainted with the discipline and humbleness of the disciple, delightfully bestow the deep-meaning fully vast scriptural knowledge, which leads to attain salvation. (46)
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