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१३] प्रथम अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
'खड्डुया मे चवेडा मे, अक्कोसा य वहा य मे ।'
कल्लाणमणुसासन्तो, पावदिट्ठि त्ति मन्नई ॥३८॥ पापदृष्टि वाला शिष्य गुरुजनों के कल्याणकारी शिक्षा शब्दों-वचनों को इस प्रकार मानता है-जैसे, ये मुझे ठोकर मारते हैं, चाँटा मारते हैं, गाली देते हैं, अपशब्द बोलते हैं, मारते-पीटते हैं-मुझे कष्ट देते हैं ॥३८॥
The disciple having a sinful outlook, the welfare instructions of preachers, consider as-He has beaten me, knocked and given me boxes, given me a slap, abused me, and hurt me. (38)
'पुत्तो मे भाय नाइ' त्ति, साहू कल्लाण मन्नई ।
पावदिट्ठी उ अप्पाणं, सासं 'दासं व' मन्नई ॥३९॥ विनीत शिष्य (गुरुजनों के अनुशासन को) यह सोचकर स्वीकार करता है कि ये मुझे अपना पुत्र, भाई, आत्मीय समझकर कल्याणकारी शिक्षा देते हैं; जबकि पापदृष्टि वाला अविनीत शिष्य हितशिक्षा से शासित होने पर स्वयं को 'दास' के समान हीन मानता है ॥३९॥
The humble disciple considers the instructions of preachers and accept thinking thus-He is kind to me, treats me like a son, younger brother and a kin, he is my well-wisher; while the sinful outlook-disciple feels himself as a slave. (39)
न कोवए आयरियं, अप्पाणं पि न कोवए ।
बुद्धोवघाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए ॥४०॥ विनीत शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु को कुपित न करे और न स्वयं ही क्रोधित हो; वह गुरु के मन को क्षोभ पहुँचाने वाली (उपघात) चेष्टा न करे और न उनका छिद्रान्वेषण करता रहे ॥४०॥
It is the duty of humble disciple that he should neither make his preacher angry nor himself. He should do no activity which may anguish the mind and heart of the preacher and never look for his (preacher's) loopholes. (40)
आयरियं कुवियं नच्चा, पत्तिएण पसायए ।
विज्झवेज्ज पंजलिउडो, वएज्ज 'न पुणो' त्ति य ॥४१॥ यदि विनीत शिष्य अपने किसी अशोभनीय व्यवहार से यह जाने कि गुरु अप्रसन्न हैं तो तुरन्त प्रीतिभरे वचनों से उन्हें प्रसन्न करे और अंजलिबद्ध होकर 'मैं फिर ऐसा कभी नहीं करूँगा'-विनम्र शब्दों से ऐसा कहे ॥४१॥
If humble disciple perceives that his preacher is displeased due to his (disciple's) inelegant behaviour then at once he should please him with smooth words and should say with folded palms-'I shall never behave thus again'. (41)
धम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धेहायरियं सया । तमायरन्तो ववहारं, गरहं नाभिगच्छई ॥४२॥
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