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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
प्रथम अध्ययन [१0
मुसं परिहरे भिक्खू, न य ओहारिणिं वए ।
भासा-दोसं परिहरे, मायं च वज्जए सया ॥२४॥ भिक्षु मृषा-असत्य भाषा का त्याग कर दे और निश्चयकारी भाषा भी न बोले। भाषा के जो अन्य दोष हैं, उनका भी परित्याग कर दे तथा माया (छल-कपटपूर्ण वचन) का भी त्याग करे ॥२४॥
Mendicant (178) should forbear falsehood, should not speak definite language, renounce all other defects of language and resign conceit words. (24)
न लवेज्ज पुट्ठो सावज्ज, न निरठें न मम्मयं !
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा ॥२५॥ भिक्षु किसी के पूछने पर भी अपने लिए, अन्य के लिए अथवा दोनों के लिये या निष्प्रयोजन ही पापकारी (साव) वचन न बोले और न ही मर्मघाती वाणी का उच्चारण करे ॥२५॥
Mendicant (disciple) should not tell any thing sinful for his own sake, for other's sake or for both sake, nor meaningless, even when asked by anybody. He should not speak the words, which may hurt others. (25)
समरेसु अगारेसु, सन्धीसु य महापहे ।
एगो एगिथिए सद्धिं, नेव चिट्ठे न संलवे ॥२६॥ लुहार की शाला अथवा ऐसे ही अन्य स्थानों में, घरों में, घरों की सन्धियों और राजमार्गों पर अकेला साधु अकेली स्त्री के साथ न तो खड़ा रहे और न ही उसके साथ किसी प्रकार का वार्तालाप (बात-चीत) ही करे ॥२६॥ ।
Alone ascetic (HY) should never stand or talk with an alone woman at the places, like black-smith's shop or battle-fields, houses, space between two houses, highways etc. (26)
जं मे बुद्धाणुसासन्ति, सीएण फरुसेण वा ।
___ 'मम लाभो' त्ति पेहाए, पयओ तं पडिस्सुणे ॥२७॥ "गुरुजन जो मुझे मृदु अथवा कठोर शब्दों से अनुशासित करते हैं, वह मेरे ही लाभ के लिए है", ऐसा सोचकर विनीत शिष्य उस अनुशासन अथवा हितशिक्षा को सावधानी से सुनकर स्वीकार करे ॥२७॥
“The enlightened preachers discipline and instruct me harshly or tenderly, is beneficial to me' thinking thus humble disciple listening carefully accept that. (27)
अणुसासणमोवायं, दुक्कडस्स य चोयणं ।
__ हियं तं मन्नए पण्णो, वेसं होइ असाहुणो ॥२८॥ गुरुजनों (आचार्य) का कोमल अथवा कठोर अनुशासन दुष्कृत का निवारण करने वाला होता है। बुद्धिमान शिष्य उसे अपने लिए लाभकारी मानता है, जबकि वही असाधु (बुद्धि-विवेकविकल) शिष्य के लिए द्वेष का हेतु बन जाता है ॥२८॥
Tender or harsh discipline of preceptors and preachers is for avoidance of mis-deeds. Intelligent disciple thinks useful it for himself; but the same becomes the cause of aversion for unwise ascetic pupil. (28)
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