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११] प्रथम अध्ययन
हियं विगय-भया बुद्धा, फरुसं पि अणुसासणं ।
तं होइ मूढाणं, खन्ति - सोहिकरं पयं ॥ २९ ॥
कठोर अनुशासन ( शिक्षाप्रद वचन) को भी निर्भीक और तत्त्वज्ञ शिष्य अपने लिए कल्याणकारी, क्षान्ति और आत्म-विशुद्धि करने वाला मानते हैं; जबकि वही शिक्षापद मूर्ख-शिष्यों के लिए ( गुरु के प्रति ) द्वेष का कारण बन जाता है ॥२९॥
Fearless and intelligent disciple considers the harsh discipline (of preachers) for his own welfare, peace and self-purification; while the same instructions become a cause of hate towards the preacher for the foolish disciples. ( 29 )
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
शिष्य ऐसे आसन पर बैठे जो गुरु के आसन से नीचा हो, स्थिर हो, किसी प्रकार की आवाज न करता हो; उस आसन पर से भी शिष्य बार-बार न उठे, प्रयोजन होने पर भी कम उठे, चपलता रहित होकर स्थिरतापूर्वक बैठे ॥३०॥
Disciple should take the lower seat than that of preacher, it should be firm, does not rock. Disciple should seldom rise from the seat, never without cause and he should sit motionless, (30)
थिरे ।
आसणे उवचिट्ठेज्जा, अणुच्चे अकुए अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई, निसीएज्जऽ प्पकुक्कुए ॥ ३० ॥
भिक्षु साधक नियत काल में भिक्षा के लिए जाये और नियत काल में ही प्रतिक्रमण करे। सभी कार्य नियत समय पर करे, अनियत काल में कोई भी प्रवृत्ति न करे ॥ ३१ ॥
Mendicant should sally forth (भिक्षाचर्या) at the proper time and should return at the right time. He should do his religious activity of exculpation (प्रतिक्रमण) at the time specified for. He should do all the activities at proper time and nothing in disappropriate peridod (31)
काण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे ।
अकालं च विवज्जित्ता, काले कालं समायरे ॥३१॥
यदि
अधिक
भिक्षार्थी साधु अन्य जनों (याचकों) की पंक्ति (क्यू-Q) में खड़ा न रहे, मुनि-मर्यादा के अनुरूप गृहस्थ द्वारा दिया हुआ, एषणीय भोजन ग्रहण करे और शास्त्र में बताये गये समय में परिमित आहार करे ॥ ३२ ॥
A mendicant wandering for food should not stand in the Q of other beggars. He should accept the food (and water) according to the rules of monk. He should eat petty portion of it at the proper place as laid down in sacred texts. (32)
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परिवाडीए न चिट्ठेज्जा, भिक्खू दत्तेसणं चरे ।
पडरूवेण एसित्ता, मियं कालेण भक्खए ॥३२॥
नाइदूरमणासन्ने,
नन्नेसिं
खु- फासओ । एगो चिट्ठेज्ज भत्तट्ठा, लंघिया तं नइक्कमे ॥ ३३॥
गृहस्थ के द्वार पर पहले से ही अन्य भिक्षु (याचक) खड़े हों, तो श्रमण न उनके अति समीप और न ही दूर, और न ही दाता गृहस्थ की दृष्टि के सामने खड़ा रहे। उन याचकों को लांघकर भी आगे न जाय ॥३३॥
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