________________
an सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वात्रिंश अध्ययन [४२६
चक्खुस्स रूवं गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु ।
तं दोसहेउं अमणुनमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥२२॥ चक्षु (नेत्रों) का ग्रहण करने योग्य विषय रूप कहा जाता है। यदि वह मनोज्ञ होता है तो राग का कारण (हेतु) बनता है और यदि वह अमनोज्ञ होता है तो द्वेष का हेतु बन जाता है। इन दोनों (मनोज्ञ-अमनोज्ञ) स्थितियों में जो सम (राग-द्वेषातीत) रहता है, वह वीतरागी होता है ॥२२॥
Eye is said perceiver of colour. If (colour) it is pleasant then becomes the cause of attachment and detachment caused by unpleasant. Who remains equanimous in both the conditions he is attachment-free or even-minded. (22)
रूवस्स चखं गहणं वयन्ति, चक्खुस्स रूवं गहणं वयन्ति ।
रागस्स हेउं समणुनमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥२३॥ रूप का ग्रहण करने वाला चक्षु कहा जाता है और चक्षु का ग्राह्य विषय रूप कहलाता है। राग के हेतु को मनोज्ञ कहा है और द्वेष का हेतु (कारण) अमनोज्ञ है ॥२३॥
Eye is said perceiver of colour and colour is the perceivable object of eye. Pleasant (colour) is the cause of attachment and detachment caused by unpleasant. (23)
रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं ।
रागाउरे से जहवा पयंगे, आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥२४॥ जो (मनोज्ञ) रूप में तीव्र गृद्धि (आसक्ति) रखता है, वह राग में आतुर होकर अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, विनष्ट हो जाता है जिस प्रकार प्रकाश-लोलुप पतंगा मृत्यु को प्राप्त होता है, मर जाता है ॥२४॥
Who indulged deep in pleasant colours, he gets untimely ruin, just as a moth fond of light rushes into death. (24)
जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं ।
दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू, न किंचि रूवं अवरज्झई से ॥२५॥ (इसके विपरीत) जो (अमनोज्ञ रूप के प्रति) तीव्र द्वेष करता है वह प्राणी उसी क्षण अपने स्वयं के दुर्दान्तं (दुर्दमनीय) द्वेष के कारण दुःख ही प्राप्त करता है। इसमें (मनोज्ञ और अमनोज्ञ) रूप का कुछ भी अपराध (दोष) नहीं है ॥२५॥
Contrary to this who deeply indulged in detachment to unpleasant colour, he suffers pain at the same moment due to his own unsubduable detachment. There is no fault of colour in it. (25)
एगन्तरत्ते रुइरंसि रूवे, अतालिसे से कुणई पओसं ।
दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥२६॥ जो रुचिर (सुन्दर) रूप में एकान्ततः अत्यधिक अनुरक्त होता है वह अतादृश-कुरूप में प्रद्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा (कष्ट) को पाता है। किन्तु विरागी मुनि उनमें (मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूपों में) लिप्त नहीं होता, राग-द्वेष नहीं करता ॥२६॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org