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४२७] द्वात्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र in
Who is much more addicted to colour, he hates unlovely colours, that ignorant suffers the pain; but indifferent monk who is not indulged in those (lovely and unlovely colours) does not attach nor detach. (26)
रूवाणुगासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे ।
चित्तेहि ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिट्टे ॥२७॥ मनोज्ञ रूप की आशा-लालसा का अनुगमन करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार से चर-अचर (बस-स्थावर) जीवों की हिंसा करता है, एक मात्र अपने स्वार्थ को ही प्रमुखता देने वाला, राग-द्वेष से क्लिष्ट अज्ञानी जीव विविध प्रकार से उन्हें (चराचर जीवों को) पीड़ित करता है ॥२७॥
The man lustful of colours injures mobile and immobile beings by several ways; indulged to attachment and detachment the ignorant person intent to his own interest torments and pains those beings by various ways. (27)
रूवाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे ।
वए विओगे य कहिं सुहं से ?, संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥२८॥ रूप में अनुपात-अनुराग और परिग्रह-ममत्व के कारण रूप के उत्पादन, संरक्षण और सत्रियोग (व्यापार-विनिमय) तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ (प्राप्त होता है) ? संभोग-उपभोग के समय भी उसे अतृप्ति ही प्राप्त होती है, तृप्ति का अनुभव नहीं होता ॥२८॥
On account of passion to colours and the feeling of myness to possessions, how can a man be happy while he gets, keeps, uses, loses and misses those things. Even when he enjoys them he does not feel satiety, always remains unsatisfied. (28)
रूवे अतिते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहि ।
अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥२९॥ रूप में अतृप्त तथा परिग्रह (परिग्रहण) में आसक्त उवसक्त (अत्यधिक आसक्त) व्यक्ति को तुष्टिसन्तुष्टि नहीं प्राप्त होती। अतुष्टि के दोष से दुःखी तथा लोभ से आविल (व्याकुल-कलुषित) व्यक्ति दूसरों की वस्तु को उनके द्वारा बिना दिये ही ले लेता है-चुराता है ॥२९॥
Unsatisfied in colours and much more addicted to seizing them, such man can never be satisfied. Painful by the fault of dissatisfaction and overwrought by greed such person takes (steals) the things of others. (29)
तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य ।
माया-मुसं वड्ढइ लोभदोसा, तत्थाऽवि दुक्खा न विमुच्चई से ॥३०॥ तृष्णा से अभिभूत, दूसरे की वस्तुओं को हरण करने वाला-चुराने वाला, रूप और परिग्रह से अतृप्त व्यक्ति के लोभ दोष के कारण उसके कपट और झूठ बढ़ते जाते हैं फिर भी (कपट और झूठ का प्रयोग करने पर भी) वह दुःखों से विमुक्त नहीं हो पाता ॥३०॥
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