________________
४२५] द्वात्रिश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
To a man, who longs for liberation, frightened from world, and fixed in religion; there is nothing so difficult to cross as the women, heart attracting of ignorants are difficult to cross. (17)
एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा जेव भवन्ति सेसा ।
जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा ॥१८॥ इन (उपर्युक्त स्त्री-संबंधी) संपर्कों को सम्यक् (भली प्रकार) अतिक्रमण (पार) कर लेने पर शेष सभी संसर्ग सुख से पार करने योग्य हो जाते हैं जिस प्रकार कि महासागर को तैरकर पार कर लेने के बाद गंगा जैसी नदियों को पार कर लेना सुकर-सरल हो जाता है ॥१८॥
One who crosses successfully the connections (relating women) remaining all connections can be crossed easily. As after crossing the ocean, to cross the rivers like Ganga becomes too easy. (18)
कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुखं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स ।
जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥१९॥ देवताओं सहित सम्पूर्ण लोक के (प्राणियों के) जितने भी शारीरिक तथा मानसिक दुःख हैं वे सब काम (कामना-वासना) की अनुगृद्धि (अतिशय आसक्ति) से उत्पन्न होते हैं। इन दुःखों का अन्त (समाप्ति) केवली वीतरागी ही कर पाते हैं ॥१९॥
All the bodily and mental torments of living beings of world along with gods, originate by the dense addictment to sex and sensuality. Only attachment-free omniscients put an end to all the miseries. (19)
जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा ।
ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥२०॥ जिस प्रकार किम्पाग फल रस, रूप और खाने में मनोरम-चित्ताकर्षक लगते हैं, किन्तु परिणाम में जीवन का अन्त कर देते हैं। इसी प्रकार कामगुण भी विपाक (परिणाम) में विनाशकारी होते हैं ॥२०॥
As the fruits of poisonous tree (Kimpákafala) are very attractive and tasty while eating but in consequence they end the life. In the same way the enjoyments of five senses are destructive in consequence. (20)
जे इन्दियाणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ ।
न याऽमणुन्नेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥२१॥ समाधि की इच्छा वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में कदापि रागभाव न करे और अमनोज्ञ विषयों में मन से भी द्वेष (द्वेष-भाव) न करे ॥२१॥
The penancer sage, who wishes the contemplation, must not have the feeling of attachment in the heart-capturing enjoyments of senses and should not have feeling of detachment to unattractive sense-objects even by the mind. (21)
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org