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३९९] त्रिंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र in
(४) वर्ग तप-धन को धन से गुणित करने पर वर्ग तप बनता है। अर्थात् घन तप को ६४ बार गुणा करने से वर्ग तप बनता है। इस प्रकार वर्ग तप के ६४ x ६४ = ४०९६ पद अर्थात् चार हजार छियाणवें पद हैं।
(५) वर्ग-वर्ग तप-वर्ग को वर्ग से गुणित करने पर वर्ग-वर्ग तप होता है। अर्थात् वर्ग तप को ४०९६ बार गुणा करने से १ करोड ६७ लाख ७७ हजार और २१६ पद होते हैं। उक्त पद अंकों में इस प्रकार है ४०९६ x ४०९६ = १६७७७२१६
यह श्रेणि तप के चार पदों की भावना है। इसी प्रकार पाँच, छह, सात आदि पदों की भावना भी की जा सकती है।
(६) प्रकीर्ण तप-यह तप श्रेणि आदि निश्चित पदों की रचना किये बिना ही अपनी शक्ति और इच्छा के अनुसार किया जा सकता है। नौकारसी से लेकर यवमध्य, वज्रमध्य, चन्द्रप्रतिमा से लेकर १५ तक बढ़ाना और फिर क्रमशः घटाते हुए एक उपवास पर आ जाना आदि प्रकीर्ण तप है।
गाथा १२-मरण काल का आमरणान्त अनशन, संथारा कहा जाता है। वह सविचार और अविचार भेद से दो प्रकार का है। सविचार में उद्वर्तन-परिवर्तन (करवट बदलने) आदि की हरकत होती है, अविचार में नहीं।
भक्त प्रत्याख्यान और इङ्गिनीमरण सविचार होते हैं। भक्तप्रत्याख्यान में साधक स्वयं भी करवट आदि बदल सकता है, दूसरों से भी इस प्रकार की सेवा ले सकता है। यह संथारा दूसरे भिक्षुओं के साथ रहते हुए भी हो सकता है। यह इच्छानुसार त्रिविधाहार अथवा चतुर्विधाहार के प्रत्याख्यान से किया जा सकता है।
इङ्गिनीमरण संथारा में अनशनकारी एकान्त में एकाकी रहता है। यथाशक्ति स्वयं तो करवट आदि बदलने की क्रियायें कर सकता है, किन्तु इसके लिये दूसरों से सेवा नहीं ले सकता।
गिरिकन्दरा आदि शून्य स्थानों में किया जाने वाला पादपोपगमन संथारा अविचार ही होता है। जैसे वृक्ष जिस स्थिति में गिर जाता है उसी स्थिति में पड़ा रहता है, उसी प्रकार पादपोपगमन में भी प्रारंभ में साधक जिस आसन का उपयोग करता है अन्त तक उसी आसन में रहता है, आसन आदि बदलने की कोई भी चेष्टा नहीं करता है।
गापा १३-अथवा यह मरणकालीन अनशन सपरिकर्म (बैठना, उठना, करवट बदलना आदि परिकर्म से सहित) और अपरिकर्म भेद से दो प्रकार का है। भक्त प्रत्याखान और इंगिनी सपरिकर्म होते हैं, और पादपोपगमन अपरिकर्म ही होता है। अथवा संलेखना के परिकर्म से सहित और उससे रहित को भी क्रमशः सपरिकर्म और अपरिकर्म कहा जाता है। वर्ष आदि पूर्वकाल से ही अनशनादि तप करते हुए शरीर को, साथ ही इच्छाओं, कषायों और विकारों को निरन्तर क्षीण करना संलेखना है, अन्तिम मरणकालीन क्षण की पहले से ही तैयारी करना है। __ गाँव से बाहर जाकर जो संथारा किया जाता है, वह निर्झरिम है, और जो गाँव में ही किया जाता है वह अनिहारिम है। अथवा जिसके शरीर का मरणोत्तर अग्निसंस्कार आदि होता है, वह निर्हारिम है। और जो गिरिकन्दरा आदि शून्य स्थानों में संथारा किया जाता है, फलतः जिसका अग्निसंस्कार आदि नहीं होता है, वह अनिहारिम है। विस्तार के लिये लिखे देखेंशान्त्याचार्य कृत बृहद वृत्ति (औपपातिक सूत्र तथा उत्तराध्ययन-साध्वी चन्दनाजी)
गाथा १६-१७-१८-जहाँ कर लगते हो वह ग्राम है। और जहाँ कर न लगते हों, वह नगर है, अर्थात् न कर। निगमव्यापार की मण्डी। आकर-सोने आदि की खान, पल्ली-वन में साधारण लोगों की या चोरों की बस्ती, खेट-धूल मिट्टी के कोट वाला ग्राम, कर्वट-छोटा नगर, द्रोण मुख-जिसके आने जाने के जल और स्थल दोनों मार्ग हों। पत्तन-जहाँ सभी ओर से लोग आते हों, मंडब-जिसके पास सब ओर अढाई योजन तक कोई दूसरा गाम न हो। सम्बाप-ब्राह्मण आदि चारों वर्ण के लोगों का जहाँ प्रचुरता से निवास हो। आश्रमपद-तापस आदि के आश्रम। विहार-देवमन्दिर। संनिवेश-यात्री लोगों के ठहरने का स्थान अर्थात् पड़ाव। समाज-सभा और परिषद। घोष-गोकुल, स्थली-ऊँची जगह, टीला आदि। सेना और स्कन्धावार (छावनी) प्रसिद्ध है। सार्य-सार्थवाहों के साथ चलने वाला जनसमूह। संवर्त-जहाँ के लोग भयत्रस्त हों। कोट्ट-प्राकार, किला आदि। वाङजिन घरों के चारों ओर काँटों की बाड़ या तार आदि का घेरा हो। रथ्या-गाँव और नगर की गलियाँ (वृहद्वृत्ति)
गाथा १९-भिक्षाचरी के छह भेद इस प्रकार हैं(७) पेटा-अर्थात् पेटिका चतुष्कोण होती है। इस प्रकार बीच के घरों को छोड़कर चारों श्रेणियों में भिक्षा लेना। (२) अर्थपेटा-इसमें केवल दो श्रेणियों से भिक्षा ली जाती है।
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