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________________ सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र शयन (सोने), बैठने तथा खड़े होने में जो भिक्षु व्यर्थ का काय - व्यापार (कायचेष्टा) नहीं करता; वह शरीर का व्युत्सर्ग- व्युत्सर्ग नाम का छठा (आभ्यन्तर ) तप कहा गया है ॥ ३६ ॥ While laying down, sitting, standing upright, who does not make useless motions of body. This is called abandoning affection to the body penance (vyutsargatapa) which is the sixth and last of internal penances. (36) -त्ति बेमि । जो पण्डित (तत्त्ववेत्ता - मेधावी ) मुनि, इन दोनों प्रकार के तपों का सम्यक्तया आचरण करता है, वह शीघ्र ही सर्व संसार (द्रव्य और भाव संसार) से विमुक्त हो जाता है ॥३७॥ - ऐसा मैं कहता हूँ । एयं तवं तु दुविहं, जे सम्मं आयरे मुणी | से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पण्डिए ॥३७॥ The wise and witty monk, who practises well these both types of (external and internal) penances, becomes free soon from this (substantial and thought) world. (37) -Such I speak. विशेष स्पष्टीकरण गाथा ७ - बाह्यतप-निम्न कारणों से इसे बाह्यतप कहा जाता है- १. अनशन आदि मुक्ति की प्राप्ति में बहिरंग निमित्त हैं। २. शरीर आदि बाह्य द्रव्य पर आधारित हैं, ३. यह अन्तरंग तप के माध्यम से ही मुक्ति का कारण है, स्वयं साक्षात् कारण नहीं। इसके विपरीत जो शरीर आदि बाह्य साधनों पर आधारित नहीं है, अन्तःकरण से स्वयं स्फूर्त है, जो विशिष्ट विवेकी साधकों द्वारा ही समाचारित है, वह ध्यान आदि अन्तरंग तप है। गाथा १०-११ – इत्यरिक अनशन तप देश, काल, परिस्थिति आदि को ध्यान में रखते हुए अपनी शक्ति के अनुसार एक अमुक समय विशेष की सीमा बाँधकर किया जाता है। भगवान महावीर के शासन में दो घड़ी से लेकर उत्कृष्ट छह मास तक की सीमा है। संक्षेप में इसके छह भेद होते हैं। त्रिंश अध्ययन [ ३९८ (१) श्रेणि तप - उपवास से लेकर छह मास तक क्रमपूर्वक जो तप किया जाता है, वह श्रेणि तप है। इसकी अनेक श्रेणियाँ हैं। जैसे उपवास, बेला - यह दो पदों का श्रेणि तप है। उपवास, बेला तेला, चौला - यह चार पदों का श्रेणितप है। (२) प्रतर तप - एक श्रेणि तप को जितने क्रम अर्थात् प्रकारों से किया जा सकता है, उन सब क्रमों को मिलाने से प्रतर तप होता है। उदाहरण स्वरूप १, २, ३, ४ संख्यक उपवासों से चार प्रकार बनते हैं। स्थापना इस प्रकार है क्रम १ उपवास बेला तेला Jain Education International २ बेला तेला चौला ३ तेला चौला १ २ उपवास ३ बेला ४ चौला उपवास तेला यह प्रतर तप है। इसमें कुल पदों की संख्या १६ है । इस तरह यह तप श्रेणि पदों को श्रेणि पदों से गुणा करने से बनता है। चार को चार से गुणित करने पर १६ की संख्या उपलब्ध होती है। यह आयाम और विस्तार दोनों में समान है। उपवास बेला ૪ चौला (३) घन तप - जितने पदों की श्रेणि हो, प्रतर तप को उतने पदों से गुणित करने पर घनतप बनता है। जैसे कि ऊपर में चार पदों की श्रेणि है, अतः उपर्युक्त षोडशपदात्मक तप को चतुष्टयात्मक श्रेणि से गुणा करने पर अर्थात् प्रतर तप को चार बार करने से घन तप होता है। इस प्रकार घन तप के ६४ पद होते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002912
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year
Total Pages652
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_uttaradhyayan
File Size21 MB
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