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in सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
अष्टाविंश अध्ययन [३५६
Right Penance
Penance is said of two kinds-(1) external and (2) intemal. External penance is of six types and so the internal penance is also of six types. (34)
नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे ।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥३५॥ आत्मा ज्ञान से जीवादि भावों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से कर्म-आस्रवों का निरोध करता है और तप से परिशुद्ध होता है ॥३५॥
Soul cognises fundamental elements like soul, non-soul etc., by knowledge, believes by faith, checks inflow of karmas by conduct and purifies itself by penances. (35)
खवेत्ता पुव्वकम्माइं, संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमन्ति महेसिणो ॥३६॥
__-त्ति बेमि । सभी दुःखों से मुक्त होने के लिए महर्षि संयम और तप के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करके मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त करते हैं ॥३६॥
-ऐसा मैं कहता हूँ। For being free from all pains and miseries, great sages destructing previous accumulated karmas by restrain and penance, obtain liberation-the final deliverance. (36)
--Such I Speak.
विशेष स्पष्टीकरण गाथा १-मोक्ष का मार्ग (उपाय, साधन, कारण) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप हैं। उससे सिद्धि-गमन रूप जो गति है, वह मोक्ष मार्ग गति है। ___गाथा २-प्रस्तुत में ज्ञान को पहले रखा है, दर्शन को बाद में। लगता है, यह व्यवहार में अध्ययन, जानकारी आदि से सम्बन्धित ज्ञान है, जो सम्यग्दर्शन से पूर्व वास्तव में अज्ञान ही रहता है। सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है। इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन के उपसंहार (गा. ३०) में "नादंसणिस्स नाणं" कहा है।
यहाँ दर्शन से सम्यग्दर्शन अभिप्रेत है, सामान्य बोधरूप चक्षु-अचक्ष आदि दर्शन नहीं। तप भी चारित्र का ही एक रूप है।
सम्यगज्ञान आदि तीनों या चारों सम्मिलित रूप से मोक्ष के कारण-साधन हैं, पृथक्-पृथक् नहीं हैं। अतः “एय मग्गमणुपत्ता" में मार्ग के लिये एक वचन प्रयुक्त है।
गाथा ४-प्रस्तुत में श्रुतज्ञान का पहले उल्लेख है। टीकाकारों की दृष्टि में यह इसलिये है कि मति आदि अन्य सभी ज्ञानों का स्वरूपज्ञान श्रुतज्ञान से होता है। अतः व्यवहार में श्रुत की प्रधानता है। ___"आभिनिबोधिक" मति ज्ञान का ही दूसरा नाम है। इन्द्रिय और मन का अपने-अपने शब्दादि विषयों का दोध अभिमुखतारूप से नियत होने के कारण इसे आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं। ___ गाथा ६-गुणों का आश्रय-आधार द्रव्य है। जीव में ज्ञानादि अनन्त गुण हैं। अजीव पुद्गल में रूप, रस आदि अनन्त गुण हैं। धर्मास्तिकाय आदि में भी गतिहेतुता आदि अनन्त गुण हैं। द्रव्य का लक्षण सत् है। सत् का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य है। पर्याय दृष्टि से द्रव्य प्रतिक्षण उत्पन्न विनष्ट होता रहता है, और ध्रौव्यत्व गुण की दृष्टि से वह मूल स्वरूपतः
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