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३५३] अष्टाविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
एक द्रव्य के आश्रित गुण होते हैं। अर्थात् जो द्रव्य के सम्पूर्ण भावों में और उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में अनादि अनन्त रूप से सदा काल रहते हैं, वे गुण हैं। द्रव्य कभी निर्गुण नहीं होता। गुण स्वयं निर्गुण होते हैं। अर्थात् गुणों में अन्य गुण नाम होते।
गुणों के दो भेद हैं। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्य, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व और अगुरुलधुत्व ये छह सामान्य गुण हैं, जो सामान्य रूप से प्रत्येक जीव-अजीव द्रव्यों में पाये जाते हैं। जीव में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख आदि विशेष गुण है, जो अजीब द्रव्य में नहीं होते। पुद्गल अजीव में रूप, रस, गन्ध आदि विशेष गुण हैं, जो जीव द्रव्य में नहीं होते। प्रतिनियत गुण विशेष होते हैं-जिसके १६ भेद हैं।
सहभावी गुण होते हैं, और क्रमभावी पर्याय। एक समय में एक गुण की एक पर्याय ही होती है। एक साथ अनेक पर्याय कभी नहीं होती। वैसे अनन्त गुणों की दृष्टि से एक-एक पर्याय मिलकर एक साथ अनन्त पर्याय हो सकती हैं। क्रमभाविता एक गुण की अपेक्षा से है।
पर्याय के मुख्यरूप से दो भेद हैं। व्यंजन पर्याय (द्रव्य के प्रदेशत्व गुण का परिणमन, विशेष कार्य) और अर्थपर्याय (प्रदेशत्व गुण के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण गुणों का परिणमन)। इनके दो भेद हैं-स्वभाव और विभाव। पर के निमित्त के बिना जो परिणमन होता है वह स्वभाव पर्याय है। और पर के निमित्त से जो होता है, वह विभाव पर्याय है।
गाथा १०-काल का लक्षण वर्तना है। जीव और अजीव सभी द्रव्यों में जो परिणमन होता है उसका उपादान स्वयं दे द्रव्य होते हैं और उनका निमित्त कारण काल को माना है। काल के अपने परिणमन में भी स्वयं काल ही निमित्त है।
काल द्रव्य है, अस्तिकाय नहीं है; चूंकि वह एक समय रूप है। प्रदेशों का समूह रूप नहीं है। भगवती सूत्र (१३/१४) में काल को जीव-अजीव की पर्याय कहा है। काल के समय (अविभाज्य रूप सर्वाधिक सूक्ष्म अंश) अनन्त हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दिन, रात्रि आदि रूप व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र (ढाईद्वीप) प्रमाण है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार काल लोकव्यापी तथा अणुरूप है। रलों की राशि के रूप में लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है।
गाथा ३२-३३-कर्मों के आश्रव को रोकना संवररूप चारित्र है। कर्मों के पूर्वबद्ध चय को तप से रिक्त करना, क्षय करना निर्जरारूप चारित्र है। प्रस्तुत अध्ययन में चारित्र की उक्त दोनों व्याख्यायें हैं। एक है "चयरित्तकर चारित्तं-(गाथा-३३) और दूसरी है-चरित्तेण निगिहाई तयेण परिसुज्नइ (गाथा-३५)। अन्तिम शुद्धि तपरूप चारित्र से ही होती है।
80583HR
Salient Elucidations Gåthå 1-The path (means, cause) of salvation is knowledge, faith, conduct, penance. The process to move on this path, that is way or movement to the path of liberation.
Gåthå 2-Here the knowledge is placed first and faith after that. It seems that knowledge here simply meant for study in behaviour and awareness, which really remains merely knowledge (may it be called as ignorance of truth and untruth) before the attainment of right faith. Only by right faith the knowledge turns to right knowledge. That is why it is said in the 30th couplet of this chapter-Nādamsaņissa Näņam-meaning without right faith the right knowledge is not possible.
Here the right faith is intended by the word darśana (fa) not perception-the undiffentiating knowledge by eyes, mind and other senses.
Penance is also a form of conduct.
Right knowledge etc., three or four causes are unitedly means of salvation, separately none of them can accomplish the aim. Hence singular number is used for path in eya maggamaņupattā.
Gåtha 4-Here the śruta-knowledge enumarated first. In the opinion of commentators the cause of this is-conception of all the other kinds of knowledges-mati knowledge etc.,-can be obtained by Śruta knowledge only. So in practical affairs or practically fruta knowledge is foremost.
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