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३५१] अष्टाविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥३०॥ सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होता, चारित्र गुण के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण (अनन्त चिदानन्द) नहीं होता ॥३०॥
Right knowledge cannot be without right faith and without right knowledge right conduct may not take place, without right conduct salvation cannot be obtained and without salvation there cannot exist the eternal bliss. (30)
निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य ।
उववूह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥३१॥ १. निःशंका २. निष्कांक्षा ३. निर्विचिकत्सिा (धर्म फल के प्रति सन्देह न होना) ४. अमूढ़दृष्टि ५. उपबृंहण (गुणीजनों की प्रशंसा से गुणों का वर्धन करना) ६. स्थिरीकरण ७. वात्सल्य और ८. प्रभावना-ये आठ सम्यक्त्व के अंग हैं ॥३१॥
There are eight essentials of right faith (1) doubtlessness (about tenets) (2) desirelessness (of heretic creeds) (3) No suspicion about the fruits of religious activities (4) undelusioned belief (5) Appraisal of wises (6) to make others stable in religion (7) affection to co-religious persons and (8) propagating the religion. (31)
सामाइयत्थ पढम, छेओवट्ठाणं भवे बीयं ।
परिहारविसुद्धीयं, सुहुमं तह संपरायं च ॥३२॥ सम्यक्चारित्र
चारित्र पाँच प्रकार का है-१. सामायिक २. छेदोपस्थापनीय ३. परिहारविशुद्धि ४. सूक्ष्मसंपराय और--॥३२॥ Right Conduct E Conduct is five fold -(1) Samayika (2) Chedopasthāpaniya (3) Pariharavisuddhi (4) Sükşma-samparāya and (5) Yathākhyata. (32)
अकसायं अहक्खायं, छउमत्थस्स जिणस्स वा ।
एवं चयरित्तकर, चारित्तं होइ आहियं ॥३३॥ ५. यथाख्यात चारित्र, यह सर्वथा कषाय रहित होता है तथा यह छद्मस्थ और केवली-दोनों को होता ये चारित्र कर्म के संचय को रिक्त (खाली) करते हैं, इसीलिए इन्हें चारित्र कहा गया है ॥३३॥
The fifth conduct is perfectly devoid of passions. It is to Kevalins and great monks. these conducts exhaust the accumulation of karmas, hence these are called conducts. (33)
तवो य दुविहो वुत्तो, बाहिरऽब्भन्तरो तहा । बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एवमब्भन्तरो तवो ॥३४॥
तप दो प्रकार का कहा गया है-१. बाह्य और २. आभ्यन्तर। बाह्य तप छह प्रकार का कहा गया है
र आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का ही है ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only
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