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३३१] षड्विंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण से (क) अन्यून (कम नहीं) (ख) अनतिरिक्त (न कम, न ज्यादा) तथा (ग) अविपरीत प्रतिलेखना ही शुद्ध होती है। उक्त तीन विकल्पों के आठ भेद होते हैं, उनमें से प्रथम भेद (अन्यून-अनतिरिक्त-अविपरीत) ही शुद्ध है और शेष भेद अशुद्ध हैं ॥२८॥
The jerks and shakes should be (a) neither less, (b) nor more or less (c) uncontrary to the quantity of inspection, is pure. Threre are eight divisions of these three parts, among them the first division (neither less, nor more, not contrary) is pure and the remaining divisions are impure. (28)
पडिलेहणं कुणन्तो, मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा ।
देइ व पच्चक्खाणं, वाएइ सयं पडिच्छइ वा ॥२९॥ प्रतिलेखन करता हुआ जो परस्पर वार्तालाप करता है, जनपद की कथा करता है, किसी को प्रत्याख्यान देता है, वाचना देता है, स्वयं किसी से वाचना लेता है-॥२९॥
While inspecting, who talks each other, tells the stories about people and populated places, formal renunciation to any, imparts or takes lesson-(29)
पुढवीआउक्काए, तेऊवाऊवणस्सइतसाण ।
पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ ॥३०॥ ऐसा प्रतिलेखना में प्रमाद करने वाला साधक पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-इन छहों कायों के जीवों का विराधक होता है ॥३०॥
Such careless adept about inspection hurts six kinds of species-earth-fire-water-airbodied, flora and mobiles. (30)
पुढवी-आउक्काए, तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं ।
पडिलेहणआउत्तो, छण्हं आराहओ होइ ॥३१॥ प्रतिलेखना में उपयोगयुक्त साधक पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, वसकाय-इन छहों कायों के जीवों का संरक्षक होता है ॥३१॥
Careful about inspection the adept becomes saviour of six kinds of species-earth-waterfire-air-bodied, flora and mobiles. (31)
तइयाए पोरिसीए, भत्तं पाणं गवेसए ।
छह अन्नयरागम्मि, कारणमि समुट्ठिए ॥३२॥ तृतीय पौरुषी के दिन कृत्य
छह कारणों में से किसी एक कारण के समुपस्थित होने पर साधक दिन के तीसरे प्रहर (पौरुषी) में भक्त-पान की गवेषणा-अन्वेषणा करे ॥३२॥
Being necessary among six causes, even for one cause adept may go for seeking alms (food and water) in the third prahara (paurusi) of day. (32)
वेयण-वेयावच्चे, इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए, छटुं पुण धम्मचिन्ताए ॥३३॥
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