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३०५] चतुर्विश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र in
इन्दियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा ।
तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए ॥८॥ संयत (संयमी साधक) आलम्बन से, काल से, मार्ग से और यतना से-इन चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या समिति से विचरण करे ॥४॥
ईर्या समिति का आलम्बन ज्ञान-दर्शन और चारित्र है। काल दिवस (दिन का समय) है। मार्ग उत्पथ का वर्जन है ॥५॥
द्रव्यतः क्षेत्रतः काल और भाव की अपेक्षा से यतना चार प्रकार की कही गई है। उसे मैं कहता हूँ, सुनो ॥६॥
द्रव्य से-आँखों से देखे (देखकर चले)। क्षेत्र से-युगमात्र (चार हाथ प्रमाण) भूमि को देखे। काल से-जब तक चलता रहे तब तक देखे। भाव से-उपयोग सहित चले (गमन करे) ॥७॥
इन्द्रियों के पाँच प्रकार के विषय और पाँच प्रकार के स्वाध्याय को छोड़कर मात्र गमन क्रिया में ही तन्मय हो और उसी को प्रधानता देकर उपयोग सहित गमन करे ॥८॥
Restrained adept should move with vigilence of movement purified by four causes-(1) base, (2) time, (3) path and (4) carefulness. (4)
The base of movement-vigilence is right knowledge-faith-conduct. Time is day-time. Path is to leave the uneven way. (5)
By substance, place, time and mind effort (anchoritical activity) is of four kinds. I tell you, listen to me. (6)
By substance, walk seeing with eyes. By place, see the ground upto the length of 4 hands or 6 feet. By time, see until walking By mind, walk with attention. (7)
Leaving the objects of five senses and five types of study, he should walk with full attention. (8) २-भाषा समिति
कोहे माणे य मायाए, लोभे य उवउत्तया । हासे भए मोहरिए, विगहासु दहेव य ॥९॥ एयाइं अट्ठ ठाणाई, परिवज्जित्तु संजए ।
असावज्जं मियं काले, भासं भासेज्ज पन्नवं ॥१०॥ क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, वाचालता तथा विकथाओं में सतत उपयोगयुक्तता-॥९॥
प्रज्ञावान संयती साधक इन (उपर्युक्त) आठ स्थानों का परित्याग करके अवसर के अनुसार निरवद्य (दोषरहित) और परिमित भाषा बोले ॥१०॥
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