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rain, सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
त्रयोविंश अध्ययन [२८८
भंते ! आपकी जैसी इच्छा हो, पूछिए। तब अनुमति पाकर केशी ने गौतम से इस प्रकार कहा-॥२२॥
Revered sir ! ask whatever you like. Then getting the consent, Kesi said to Gautama-(22)
चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ ।
देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ॥२३॥ (केशी कुमारश्रमण) यह जो चातुर्याम धर्म है जिसका उपदेश भगवान पार्श्वनाथ ने दिया है और यह पंचशिक्षा (पंच महाव्रत) रूप धर्म भगवान वर्द्धमान द्वारा उपदिष्ट है ॥२३॥
(Kesi Kumāraśramana) This four-vowed religion precepted by Bhagawāna Pārśvanātha and five-vowed religion instructed by Bhagawana Mahavira. (23)
एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ?
धम्मे दुविहे मेहावि !, कहं विप्पच्चओ न ते ? ॥२४॥ हे मेधावी ! एक ही कार्य-लक्ष्य में प्रवृत्त हुए हैं तो इस विशेषता-भिन्नता का क्या कारण है ? इन दो प्रकार के धर्मों में आपको संदेह (विप्रत्यय) क्यों नहीं होता ? ॥२४॥
O wise ! While both religions (code of conduct) pursue the same end, why this difference? Does these two types of code of conduct, not create any suspicion in y mind ? (24)
तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी ।
पन्ना समिक्खए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छयं ॥२५॥ (गौतम गणधर) केशी के ऐसा कहने पर गौतम ने कहा-तत्त्व का विनिश्चय सम्यक् निर्णय करने वाली प्रज्ञा द्वारा ही धर्म तत्त्व की समीक्षा की जाती है ?॥२५॥
(Gautama Ganadhara) Hearing Kesi's these words Gautama expressed-Rules of religion are decided by pure reason and wisdom ascertains the doctrines of religion. (25)
पुरिमा उज्जुजडा उ, वंकजडा य पच्छिमा ।
मज्झिमा उज्जुपन्ना य, तेण धम्मे दुहा कए ॥२६॥ पूर्व-प्रथम तीर्थंकर के साधु सरल और दुर्बोध्य (ऋजु-जड़) होते हैं तथा पश्चिम (अन्तिम) तीर्थकर के साधु असरल और दुर्बोध्य (वक्र जड़) होते हैं और मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधु सरल और प्राज्ञ (ऋजु प्राज्ञ) होते हैं। इस कारण धर्म के दो प्रकार किये गये हैं ॥२६॥
The sages of first tirthamkara were simple but slow of understanding and those of last prevaricating and slow of understanding; while those of middle 22 tirthamkaras were simple and wise. Hence there are two forms of code of conduct. (26)
पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ । कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालओ ॥२७॥
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